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________________ गा०- २२ ] अणुभावहत्तीए भुजगारअंतरं २८३ एगसमओ, उक पुव्वको डिपुधत्तं । अप्पदर० - अवधि ० तिरिक्खोघं । सम्मत्त ० अप्पद० णत्थि अंतरं । सम्मत्त सम्मामि० अवधि ० अवत्तव्व० ज० एस० पलिदो० असंखे ०. भागो, उक्क० सहिदी देणा । अनंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो । णवरि भुज ०अवद्वि० तिरिक्खोघं । अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । एवं पंचिदियतिरिक्खजोणिणीणं । णवरि सम्मत्त० अप्पदर० णत्थि । पंचिं ० तिरि० अपज्ज० छब्बीसंपयडीणं भुज-अवद्वि० ज० एगस०, अप्पद० अंतोमु०, उक्क० सव्वे ० तोमु० | सम्मत्त सम्मामि० अवहि० णत्थि अंतरं । एवं मणुस अपज्ज० । ४८५ मणुसतियम्मि मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० भुज० ज० एस ०, उक० पुव्वकोडी देणा । अप्पद० अवहि० तिरिक्खभंगो । सम्मत्त - सम्मामि० अप्पदर० जहण्णुक० अंतोमु० । अवहि ० - अवत्तव्व० ज० एस० पलिदो ० असंखे ० भागो, उक्क० सगहिदी देसॄणा । अणंताणु ० चउक्क मिच्छत्तभंगो | णवरि भुज०अवधि ० - अवत्तव्व ० पंचिदियतिरिक्खभंगो | 0 । ४८६. देवेषु वावीसंपयडीणं भुज० ज० एस ०, उक्क० अट्ठारस० सागरो० विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । अल्पतर विभक्ति और अवस्थित त्रिभक्तिका अन्तर सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी तर विभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर क्रमशः एक समय और पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिध्यात्व के समान है । इतना विशेष है कि भुजगार और अवस्थितविभक्तिका अन्तर सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनियों में जानना चाहिए | इतना विशेष है कि सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं है । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है, अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए । ९४८५. तीन प्रकारके मनुष्यों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी भुजगार विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अल्पतर और अवस्थित विभक्तिका भङ्ग तिर्यों के समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मध्यात्वकी अपर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर क्रमशः एक समय और पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भङ्ग मिध्यात्वकी तरह है । इतना विशेष है कि भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका अन्तर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान है । १४८६, देवों में बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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