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________________ जय धवलास हिदे कसायपाहुडे • २९० 1 [ अणुभागविहन्ती ४ देवोघं सोहम्मद जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चैव । णवरि सम्मत्त अप्पद० णत्थि । एवं पंचिदियतिरि० जोणिणी - भवण ० - वाण - जोदिसिए ति । ९४६५. तिरिक्खाणमोघं । णवरि सम्मामि० अप्पद० णत्थि । पंचि०तिरि०पज्ज० छब्बीसं पयडीणं तिरिण पदवि० सम्मत्त सम्मामि० अवद्वि० श्रसंखेज्जा | एवं मणुस अपज्ज० । मणुस्सेसु छब्बीसं पयडीणं तिरिणपदविह० सम्म० सम्मामि० अवद्वि० असंखेज्जा | दोरहमप्पद० बरहमवत्तव्व० संखेज्जा । मणुसपज्ज० - मणुसिणीसु सव्वपय० सव्वपदवि० संखेज्जा | आणदादि जाव अवराइदं चि अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० असंखेज्जा । णवरि सम्मत्त० अप्पद० ओघं । सव्व सव्वपयडीणं सव्वपदविहत्तिया संखेज्जा । एवं जाणिदृण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । ४६. खेत्ताणु ० दुविहो जिद्द सो— ओघेण आदेसेण य । श्रघेण छब्बीसं पडणं तिणिपदवि० केवडि० खेचे ? सव्वलोगे । अनंताणु ० चउक्क० अवतव्व० सम्म० सम्मामि० तिरिणपदवि० लोग० असंखे० भागे । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अप्पद० णत्थि । आदेसेण खेरइएस अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० लोग ० देव और सौधर्म स्वर्ग से लेकर सहस्रार तक के देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतर विभक्तिवाले वहाँ नहीं हैं । इसीप्रकार पञ्च ेन्द्रियतिर्यंच योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें जानना चाहिए । $ ४९५, सामान्य तिर्यंचोंमें ओघकी तरह भंग है । इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिवाले वहाँ नहीं है । पञ्च ेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं । इसीप्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए । सामान्य मनुष्यों में छब्बीस प्रकृतियोंकी - भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले और सम्यक्त्व तथा सभ्यमिथ्यात्वक अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अल्पतर विभक्तिवाले तथा इन दोनों और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। मनुप्रपर्याप्त और मनुष्यिनियों में सब प्रकृतियों की सब विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं । नत स्वर्ग से लेकर अपराजित विमान तक के देवों में अट्ठाईस प्रकृतियों की सब विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वकी अल्पतरविभक्तिवालो का परिमाण की तरह है । सर्वार्थसिद्धिमें सब प्रकृतियों की सब विभक्तिवालों का परिमाण संख्यात है । इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए । ९ ४६६. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । छब्बीस प्रकृतियों की भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवों का कितना क्षेत्र है । सब लोक क्षेत्र है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले तथा सम्यक्त्व और सम्यforecast तीन विभक्तिवाले जीवों का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार सामान्य तिर्यो में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं है । आदेश से नारकियो में अट्ठाईस प्रकृतियों की सब विभक्तिवाले जीवो का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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