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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए द्वारणपरूवणा ३५१ चरिमसमयजहण्णविसोहिहाणेण बज्झमाणजहण्णाणुभागबंधट्टाणमणंतगुणं । तस्सेवुक्कस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं। पुणो तस्सेव दुचरिमसमयमिच्छादिहिस्स सव्वुक्कस्सविसोहिहाणेण बज्झमाणजहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । तस्सेवुक्कस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव दुचरिमसमयसव्वजहण्णविसोहिहाणेण बज्झमाणजहण्णाणुभागवंधहाणमणंतगुणं । तस्सेव उक्कस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं । एवं तिचरिमादिसमयप्पहुडि अंतोमुत्तकालमणंतगुणसरूवेणोदारेदव्वं जाव सत्थाणमिच्छादिहिपढमसमओ त्ति । पुणो असण्णिपंचिदिय-चरिंदिय-तेइंदिय-बेइंदिय-बादरेइंदिएमु च अंतोमुहुत्तकालमणेणेव विहाणेण ओदारेदव्वं । पुणो सव्वविसुद्धचरिमसमयमुहुमअपज्जत्तयस्स सव्वुक्कस्सविसोहिहाणेण बज्झमाणजहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । तस्सैवुक्कस्साणुभागबंधटाणमणंतगुणं । तस्सेव मंदविसोहिहाणेण बज्झमाणजहण्णाणुभागहाणमणंतगुणं । तस्सेवुक्कस्साणुभागबंधटाणमणंतगुणं । एवं दुचरिमसमयप्पहुडि अणंतगुणकमेण ओदारेदव्वं जाव मुहुमसत्थाणजहण्णसंतसमाणबंधहाणे ति । तेण फद्दयंतराणि छविहाए बडीए अवहिदाणि त्ति णव्वदे। -ncrease Mirror उसी संयमाभिमुख मिथ्याष्टिके अन्तिम समयवर्ती जघन्य विशुद्धिस्थानसे बंधनेवाला अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणा है। उसीका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणा है । पुन: द्विचरम समयवर्ती उसी मिथ्यादृष्टिके सबसे उत्कृष्ट विशुद्धिस्थानसे बंधनेवाला जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणा है । उसीका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणा है। पुन: द्विचरम समयवर्ती उसी मिथ्यादृष्टिके सबसे जघन्य विशुद्धिस्थानसे बंधनेवाला जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। उसीका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। इसी प्रकार त्रिचरम आदि समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर स्वस्थान मिथ्या दृष्टिके प्रथम समय पर्यन्त ये अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणे रूपसे उतारनाचाहिए। पुनः असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, दोइन्द्रिय और बादर एकेन्द्रियों में अन्तर्मुहूर्तकाल तक इसी क्रमसे उतारना चाहिए। पुनः सर्वविशुद्ध चरम समयवर्ती सूक्ष्म अपर्याप्तक जीवके सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिस्थानसे बंधनेवाला जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। उसीका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणा है। उसी सूक्ष्म अपर्याप्तक जीवके मन्द विशुद्धिस्थानसे बंधनेवाला जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । उसीका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। इसी प्रकार द्विचरम समयसे लेकर सूक्ष्म अपयोप्तक जीवके स्वस्थान जघन्य सत्त्वस्थानके समान बन्धस्थान पर्यन्त अनन्तगुणित क्रमसे उतारना चाहिए । इससे जाना जाता है कि स्पर्धकोंका अन्तर छह प्रकारकी वृद्धिरूपसे अवस्थित है। विशेषार्थ-स्पर्धकोंमें परस्परमें अन्तर पाया जाता है यह बात तो पहले वर्ग, वर्गणा और स्पर्धकका कथन करते हुए बतलाई ही है। यदि स्पर्धकोंमें अन्तर न होता तो स्पर्धक अनेक नहीं होते। अन्तर होनेसे ही पृथक स्पर्धककी रचना होती है और वह अन्तर अविभागप्रतिच्छेदोंको लेकर होता है। जहाँ तक एक एक अविभागप्रतिच्छेद अधिकवाले परमाण पाये जाते हैं वहाँ तक एक स्पर्धक होता है। उसके बाद एक अविभागप्रतिच्छेद अधिक परमाण नहीं पाया जाता किन्त अनन्तगणे अविभागप्रतिच्छेद अधिकवाले परमाण पाये जाते हैं। बस वहींसे दूसरा स्पर्धक प्रारम्भ हो जाता है, अत: जघन्य स्पर्धकका अन्तर सबसे कम होता है और जघन्य स्पर्धकसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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