SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ ___$५८७. संपहि परूवणा पमाणं सेढी अवहारो भागाभागं अप्पावहुअं चेदि एदेहि छहि अणियोगदारेहि मुहुमजहण्णहाणपरमाणणं परूवणा कीरदे । तं जहाजहरिणयाए वग्गणाए अस्थि कम्मपदेसा। विदियाए नग्गणाए अत्थि कम्मपदेसा । एवं णेदव्वं जाव उकस्सवग्गणे त्ति । परूवणा गदा । ५८८. जहरिणयाए वग्गणार कम्मपदेसा केत्तिया ? अणंता अभवसिदिएहि अणंतगुणा सिद्धाणंतिमभागमेत्ता । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सवग्गणे त्ति । ___$ ५८६. सेढिपरूवणा दुविहा-अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधाए जहणियाए वग्गणाए कम्मपदेसा बहुआ। विदियाए वग्गणाए कम्मपदेसा विसेसहीणा । एवं विसेसहीणा विसेसहीणा जाव उक्कस्सिया वग्गणा त्ति । भागहारो पुण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तो । एवमणंतरोवणिधा गदा। $ ५६०. जहरिणयाए वग्गणाए कम्मपदेसेहिंतो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तमद्धाणं गंतूण कम्मपदेसा दुगुणहीणा होति । एवमवहिदमद्धाणं उत्कृष्ट स्पर्धकका अन्तर अनन्तगणा है। किन्तु इसमें एक दूसरा पक्ष भी है और वह यह है कि चूँकि स्पर्धकान्तर छह प्रकारकी हानि और छह प्रकारकी वृद्धिको लिए हुए होता है, अत: स्पर्धकान्तरोंमें अल्पबहुत्व नहीं किया जा सकता। अर्थात् यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक स्पर्धकका अन्तर थोड़ा है।और अमुकका अनन्तगुणा, क्योंकि हानि वृद्धि होनेसे उसमें घटती और बढ़ती हो सकती है। तथा उनमें हानि-वृद्धि होती है यह बात इससे स्पष्ट है कि सूक्ष्म निगोदिया जीवके उक्त बन्धसमुत्पत्तिक स्थानसे नीचे अन्य भी बन्धस्थान पाये जाते हैं और वे बन्धस्थान छह प्रकारकी वृद्धिको लिए हुए हैं। जैसा कि मूलमें संयमके अभिमुख सर्वविशुद्र मिथ्यादृष्टि जीवसे लेकर सर्वविशुद्ध चरिमसमयवर्ती सूक्ष्म अपर्याप्तक जीवके होनेवाले अनुभागबन्धको उत्तरोत्तर अनन्तगुणा अनन्तगुणा बतलाकर स्पष्ट किया है। ६५८७. अब प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणी; अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारोंसे सूक्ष्म जीवके जघन्य अनुभागस्थानके परमाणुओंका कथन करते हैं। यह इल प्रकार है-जघन्य वर्गण में कर्मप्रदेश हैं। दूसरी वर्गणामें कर्मप्रदेश हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट वर्गणा पर्यन्त लेजाना चाहिए । प्ररूपणा समाप्त हुई। ५८८. जघन्य वर्गणामें कर्मप्रदेश कितने हैं ? अनन्त है जो अभव्यराशिसे अनन्तगणे और सिद्वराशिके अनन्तवें भागप्रमाण हैं। इस प्रकार उत्कटवर्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिए। ५८९. श्रेणि प्ररूपणा दो प्रकारकी है-अनन्तरोपनिधा और परंपरोपनिधा। उनमेंसे अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा जघन्य वर्गणामें कर्मप्रदेश बहुत हैं। दूसरी वर्गणामें कर्मप्रदेश विशेष हीन हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट वाणा पर्यन्त कर्मप्रदेश विशेषहीन विशेषहीन होते हैं। भागहारका प्रमाण अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण है। अर्थात् इस भागहारका भाग जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंमें देनेसे जो लब्ध प्राधे उतने हीन कर्मप्रदेश दूसरी वर्गणामें हैं। इस प्रकार अनन्तरोपनिधाका कथन समाप्त हुआ। ६५९२. जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंसे अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्वराशिके अनन्तवें भागप्रमाण स्थान जानेपर कर्मप्रदेश दूने हीन अर्थात् आधे होते हैं। इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy