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________________ २६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ अणुभागविहत्ती ४ अणुसंधिय णेदव्वं जाव असण्णिपंचिंदियसव्वुक्कस्सविसोहीए बद्धजहण्णाणुभागबंधो त्ति। पुणो असण्णिपंचिंदियचरिमविसोहीए बद्धजहण्णाणुभागबंधादो तप्पाओग्गविसुद्धसण्णिपंचिंदिएण पढमसमयसंजुत्तेण बद्धजहण्णाणुभोगो अणंतगुणहीणो त्ति । एदासि पंचएहमद्धाणं जत्तिया समया तत्तिया चेव जेण अणंतगुणहाणिवारा तेण तत्तो असंखेज्जगुणत्तं सिद्धं । हस्साणुभागस्स अंतरकरणे कदे पच्छा सुहुमणिगोदजहण्णाणुभागेण सरिसत्तमुवगयस्स अणतगुणहाणिवारा असंखेज्जा किरण होंति ?ण, हस्साणुभागसंतस्स अणुसमोवट्टणाए अभावादो। ण च कंडयघादेण समुप्पण्णअणंतगुणहाणीणं वारा असंखेज्जा अत्थि, खवगसेढिअद्धाए असंखेज्जअणुभागकंडयउक्कीरणद्धाणमभावादो। ॐ रदीए जहएणाणुभागो अणंतगुणो। ४४७. कुदो ? पयडिविसेसेण संसारावत्थाए अणंतगुणकमेण अवडाणादो । ॐ दुगुंछाए जहणणाणुभागो अणंतगुणो । $ ४४८. कुदो ? पयडिविसेसादो । * भयस्स जहणणाणुभागो अणंतगणो । ४४६. सुगमं । प्रथम समयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त, अनन्तगुणहीन गुणश्रेणि क्रमसे होनेवाले जघन्य अनुभागबन्धको असंज्ञी पञ्चेन्द्रियके सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिसे बांधे गये जघन्य अनुभागबन्ध पर्यन्त ले जाना चाहिये। पुन: असंज्ञी पञ्चेन्द्रियके अन्तिम विशुद्धिसे बाँधे गये जघन्य अनुभागबन्धसे तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाले संज्ञी पञ्चेन्द्रियके द्वारा संयुक्त होनेके प्रथम समयमें बांधा गया जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है। एकेन्द्रियसे लेकर पञ्चन्द्रिय पर्यन्त इन पाँचों अन्तर्मुहूतोंके जितने समय होते हैं यतः उतने ही अनन्तगण हानिके बार है अतः हास्यकी अनन्तगुण हानिके बारोंसे अनन्तानुबन्धी लोभके जघन्य अनुभागबन्धकी अनन्तगुण हानिके बार असंख्यातगुणे हैं यह सिद्ध हुआ। शंका-हास्यके अनुभागका अन्तरकरण करने पर पीछे वह अनुभाग सूक्ष्म निगोदिया जीवके जघन्य अनुभागके समान हो जाता है, अत: उसकी अनन्तगुणहानिके बार असंख्यात क्यों नहीं होते ? समाधान नहीं, क्योंकि हास्यके अनुभागसत्कर्मका प्रति समय अपवर्तनघात नहीं होता है। और काण्डकघातसे उत्पन्न अनन्तगुणहानिके बार असंख्यात हो नहीं सकते, क्योंकि क्षपकश्रेणि के कालमें असंख्यात अनुभागकाण्डकोंके उत्कीरण कालका अभाव है। * उससे रतिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। (६४४७. क्योंकि प्रकृति विशेष होनेके कारण संसार अवस्थामें रतिकर्म अनन्तगुणरूपसे अवस्थित है। * उससे जुगुप्साका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । ४४८. क्योंकि जुगुप्सा भी एक प्रकृति विशेष है। * उससे भयका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । ६४४९. यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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