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________________ गा० २२ ) . अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुअं २६५ * हस्सस्स जहरणाणुभागो अणंतगुणो। ४४६. कुदो' ? पुन्विल्लस्स पच्चग्गबंधत्तादो। खवगसेढीए अणंतगुणहाणिकमेण संखेजवारं पत्तघादहस्साणुभागादो अणंताणुबंधिलोभजहण्णाणुभागो कथमणंतगुणहीणो ? ण, हस्सस्स अणंतगुणहाणिवारेहितो अणंताणुबंधिलोभाणुभागबंधस्स अणंतगुणहाणिवाराणमसंखेज्जगुणत्तादो। तं जहा-मुहुमअणंताणुबंधिलोभसव्वजहण्णाणुभागबंधादो तप्पाओग्गविसुद्धवादरेइंदियस्स अणंताणुबंधिलोभजहण्णाणुभागबंधो पढमसमइओ अणंतगुणहीणो । विदियसमए तस्सेव जहण्णाणुभागबंधो तत्तो अणंतगुणहीणो । एवं णेदव्वं जाव उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण हिदसव्वविसुद्धबादरेइंदियचरिमसमयउक्स्सविसोहीए बदलोभजहण्णाणुभागबंधो ति । तत्तो तप्पाअोग्गविसुद्धवेइंदियजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणहीणो। एवं विदियसमयप्पहुडि अंतोमुहुत्तकालमणंतगुणहीणाए सेढीए णेदव्वं जाव सव्वविसुद्धवेइंदिएण बद्धजहण्णाणुभागबंधो ति । एवं तेइंदिय-चउरिंदिय-असण्णिपंचिदिएसु पादेक्कमंतोमुहुत्तकालमणंतगुणहीणाए सेढीए * उससे हास्यका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। ४४६. क्योंकि अनन्तानुबन्धी लोभका नवीन अनुभागबन्ध है इसलिए उसका हास्यसे जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। शंका-क्षपक श्रेणीमें अनन्तगुणहानिक्रमसे संख्यातबार घातको प्राप्त हुए हास्यके अनुभागसे अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा हीन कैसे है ? । समाधान-नहीं, क्योंकि हास्यमें जितनीबार अनन्तगुणहानि होती है उन बारोंसे अनन्तानुबन्धी लोभके अनुभागबन्धमें अनन्तगुणहानि होनेके बार असंख्यातगुणे हैं। खुलासा इस प्रकार है-सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके अनन्तानुबन्धी लोभका जो सबसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है उससे अपने योग्य विशुद्ध परिणामवाले बादर एकेन्द्रियके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धी लोभका जो जघन्य अनुभागबन्ध होता है वह अनन्तगुणा हीन है। दूसरे समयमें उसो बादर एकन्द्रिय जीवके जो जघन्य अनुभागबन्ध हाता है वह प्रथम समयमें होनेवाले अनुभागबन्धसे अनन्तगुणा हीन है। इस प्रकार इस क्रमसे ऊपर एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते अन्तर्मुहूर्त प्रमाण समय बिताकर स्थित हुए सबसे विशुद्ध बादर एकेन्द्रियके अन्तिम समयमें होनेवाली उत्कृष्ट विशुद्धिसे बाँधे गये लोभके जघन्य अनुभागबन्ध पर्यन्त ले जाना चाहिये। सबसे विशुद्ध बादर एकेन्द्रियके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट विशुद्धिसे लोभका जो जघन्य अनुभागबन्ध होता है उससे अपने योग्य विशुद्ध परिणामी दो इन्द्रिय जीवके प्रथम समयमें होनेवाला जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा हीन है। इसी प्रकार दूसरे समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण समय बिताकर स्थित हुए सबसे विशुद्ध दो इन्द्रिय जीवके द्वारा बाँधे गये जघन्य अनुभागबन्ध पर्यन्त अनन्तगणी हीन श्रेणिरूप से ले जाना चाहिये । अर्थात् उक्त प्रकारके दो इन्द्रियके प्रथम समयमें होनेवाले जघन्य अनुभागबन्धसे दूसरे समयमें होनेवाला जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगणा हीन है। उससे तीसरे समय में होनेवाला जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगणा हीन है। इसी प्रकार आगे भी अन्तिम समय पर्यन्त जानना चाहिए। इस प्रकार तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंक्षिपञ्चेन्द्रियों से प्रत्येक 1. ता० प्रतौ कुदो इति पाठो नास्ति । २. आ. प्रतौ अणंतगुणा एवं इति पाठः । ३. प्रा० प्रतौ भयंतगुणाए सेढीए इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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