SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अणुभावहत्तीए अप्पा बहुअं * सोगस्स जहण्णाणुभागो अयंतगुणो । ४५०. सुगमं । * अरदीए जहण्णाणुभागो अतगुणो । ९४५१. एदेसिं छण्णोकसायाणं जदि वि एक्कम्मि चैव द्वाणे जहण्णमणुभागसंतकम्मं जाएं तो वि अण्णोष्ण पेक्खिऊण अनंतगुणा जादा, पयडिविसेसादो । महल्लाणुभागाणं महल्ले अणुभागखंडए पदिदे वि अवसेसाणुभागो खवगसेढीए वि अतगुणकमेव चेदि त्ति भणिदं होदि । गा० २२ * अपच्चक्खाणमाणस्स जहण्णाणुभागो अांतगुणो । ६४५२. कुदो ? सुहुमणिगोदेसु पत्तजहण्णाणुभागत्तादो । खवगसेढीए अट्ठकसायाणं जहण्णसामित्तं किण्ण दिण्णं १ अंतरकरणे अकदे चैव विद्वत्तादो। अंतरकरणे कदे जाणि कम्माणि अच्छंति तेसिमणुभागसंतकम्मं मुहुमेइंदियसव्वजहण्णाणुभागसंतकम्मादो अतगुणहीण होदि, ण अण्णेसिमिदि भणिदं होदि । * कोधस्स जहणाणुभागो विसेसाहियो । ४५३. केत्तियमेत्तेण ? अनंतफद्दयमेत्तेण । * उससे शोकका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । ४५०. यह सूत्र सुगम है । * उससे अरतिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । $ ४५१, यद्यपि इन छ नोकषायों का जघन्य अनुभागसत्कर्म एक ही स्थानपर हो जाता है तो भी एक दूसरे को देखते हुए अनन्तगुणा है, क्योंकि प्रत्येक प्रकृति भिन्न है । तात्पर्य यह है कि बड़े अनुभागों का बड़े अनुभाग काण्डकों में क्षेपण कर देने पर भी वाकी बचा हुआ अनुभाग क्षपक श्र ेणीमें भी अनन्तगुणे रूपसे ही स्थित रहता है । २६७ .. * उससे अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । $ ४५२, क्योंकि सूक्ष्म निगोदिया जीवोंमें उसका जघन्य अनुभाग पाया जाता है । अर्थात् छ नोकषायोंका जघन्य अनुभाग क्षपकश्रेणी में पाया जाता है और अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग सूक्ष्म निगोदियाके पाया जाता है, अतः वह अनन्तगुणा है । शंका- आठ कषायोंका जघन्य स्वामित्व क्षपकश्रेणी में क्यों नहीं दिया ? ९ ४५३ शंका - कितना अधिक है ? समाधान - अनन्त स्पर्धकमात्र अधिक है। समाधान - क्योंकि अन्तरकरण किये बिना ही आठों कषाय नष्ट हो जाती हैं । तात्पर्य यह है कि अन्तरकरण करनेपर जो कर्म रहते हैं उनका अनुभागसत्कर्म सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके सबसे जघन्य अनुभागसत्कर्मसे अनन्तगुणा हीन है, अन्यका नहीं । * उससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy