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________________ २१६ गा० २२] अणुभागबंधाहियारे भंगविचओ पत्थि अंतरं । अणंताणु चउक्क० जहण्णाजहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक० सगहिदी देसूणा । सम्मत्त० जहण्णाण णत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० अज. ज. एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुदिसादि जाव सव्वहसिद्धि ति सव्वपयडीणं जहरणाजहण्णाणु० पत्थि अंतरं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । * पाणाजीवेहि भंगविचओ। ३२५. अहियारसंभालणमुत्तमेदं । सुगमं । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में सब प्रक्रतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तरकाल नहीं है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ-आदेशसे सामान्य नारकियोंमें बाईस प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है, क्योंकि जघन्य अनुभाग जो असंज्ञी पश्चेन्द्रिय नरकमें जन्म लेता है उसके होता है अत: जब वह नरकमें जन्म लेकर उस अनुभागको बढ़ा लेता है तो पुनः जघन्य नहीं कर सकता, अतः अन्तर नहीं है। अनन्तानुबन्धीके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर उसीके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके अन्तरकी तरह जानना चाहिए । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागका अन्तर उन्हींके उत्कृष्ट अनुभागके अन्तरकी तरह जानना चाहिए । दूसरे आदि नरकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि इनका जघन्य अनुभाग अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टि नारकीके होता है, अत: जघन्य अनुभागवाला सम्यक्त्यसे च्युत होकर अजघन्य अनुभागवाला होकर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहरकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके जघन्य अनुभागवाला हो गया तो जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हुआ। इसी प्रकार अजघन्य अनुभागका भी जघन्य अन्तर विचार लेना चाहिये। सामान्य तिर्यञ्चों में तो बाईस प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर होता है, क्योंकि उनमें इनका जघन्य अनुभाग हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके होता है, अत: छूटकर पुनः प्राप्त हो सकनेके कारण वहाँ अन्तराल संभव है किन्तु पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च आदि तीन भेदोंमें उन प्रकृतियों के उक्त अनुभागोंका अन्तर नहीं है, क्योंकि इनका जघन्य अनुभाग जो हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला एकन्द्रिय इनमें जन्म लेता है उसीके होता है, अत: इन पर्यायोंमें जघन्य अनुभागको बढ़ा लेने पर पुनः उसका जघन्य होना संभव नहीं है इसलिये अन्तर नहीं है। इसी प्रकार इनके अपर्याप्त तथा मनुष्योंमें भी घटा लेना चाहिये । देवगतिमें सामान्य देवोंमें तथा सौधर्मसे लेकर उपरिम प्रैवेयक पर्यन्त बाईस प्रकृतियों के तथा ऊपर सभी प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है, क्योंकि उनमें जघन्य अनुभागके नष्ट होनेपर पुनः उसकी उत्पति नहीं होती या प्रारम्भमें जो अनुभाग रहता है अन्ततक वही रहता है। अन्य प्रकृतियोंके अन्तरको पहले कहे गये उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट अनुभागके अन्तरकी तरह घटा लेना चाहिये । * नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयका अधिकार है। $ ३२५. अधिकारकी सम्हालके लिए यह सूत्र आया है। इसका अर्थ सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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