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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ॐ तत्थ अठ्ठपदं । ...
३२६. तत्थ णाणाजीवभंगविचए अट्ठपदं बुच्चदे। किमट्टपदं णाम ? जेण अवगएण भंगा अवगम्मति तमपदं । ।
* जे उक्कस्साणुभागविहत्तिया ते अणुकस्सअणुभागस्स अविहत्तिया। $ ३२७. कुदो ? उक्कस्साणुक्कस्साणुभागाणं सहाणवहाणलक्खणविरोहादो ।
* जे अणुक्कस्सअणुभागस्स विहत्तिया ते उकस्सअणुभागस्स अविहत्तिया।
$ ३२८. अणुक्कस्साणुभागम्मि उक्कस्साणुभागस्स संभवविरोहादो ।
* जेसिं पयडी अस्थि तेसु पयद, अकम्मे अव्ववहारो। ___ ३२६. जेसि जीवाणं मोह उत्तरपयडीओ अत्थि तेसु जीवेसु पयदं अहियारो। अकम्मे मोहकम्मवज्जिए अव्यवहारो ववहारो णत्थि' खीणकसायादिउवरिमजीवेहि गत्थि ववहारो, मोहणीयकम्माभावादो त्ति भणिदं होदि ।
8 एदेण अट्ठपदेण । * उसमें यह अर्थपद है।
३२६. उसमें अर्थात् नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय नामके अधिकारमें अर्थपदको कहते हैं।
शंका-अर्थपद किसे कहते हैं। समाधान-जिसके जान लेने पर भंगोंका ज्ञान हो जाता है उसे अर्थपद कहते हैं।
* जो उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव हैं वे अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले नहीं होते।
३२७. क्योंकि उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागोंमें सहानवस्थान रूप विरोध पाया जाता है। अर्थात् ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं।
* जो अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव हैं वे उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले नहीं है।
६ ३२८. क्योंकि अनुत्कृष्ट अनुभागके रहते हुए उत्कृष्ट अनुभागके होनेमें विरोध है।
* जिन जीवोंके मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियाँ पाई जाती हैं वे प्रकृत हैं। जो मोहसे रहित हैं उनमें व्यवहार नहीं होता।
३२९. जिन जीवोंके मोहनीय की उत्तर प्रकृतियाँ हैं उन जीवोंका प्रकरण है अर्थात् उनका अधिकार है। जो मोहकर्मसे रहित हैं उनका श्रव्यवहार है अर्थात् उनका व्यवहार नहीं है। तात्पर्य यह है कि बारहवें गुणस्थानसे लेकर ऊपरके जीवोंकी अपेक्षा व्यवहार नहीं है, क्योंकि उनके मोहनीयकर्मका अभाव है।
* इस अर्थपदके अनुसार
ता. प्रतौ अब्ववहारोणस्थि इति पाठ:1
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