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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए वड्डीए कालो ३११ अवत्त० ओघं । दोण्हमवहिदं ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो. संपुषणाणि । एवं पढमपुढवि० । णवरि सगहिदी। विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सगहिदी । सम्मत्त० अणंतगुणहाणी णस्थि ।। ५३८. तिरिक्ख० छब्बीसं पयडीणं छवड्डि-हाणीणं णेरइयभंगो । अवढि० ज० एगस०, उक्क० तिषिण पलिदोवमाणि अंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । अणंताणु०चउक्क० अवत्त० ओघं । सम्मामि० अवत्त० सम्मत्त० अणंतगुणहाणि-अवत्त० ओघं । दोण्हमवहि० मिच्छत्तभंगो । णवरि सादिरेयपमाणं पलिदो० असंखे०भागो। एवं तिएहं पंचिंदियतिरिक्खाणं । णवरि सम्म.-सम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० तिरिण पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेण सादिरेयाणि । जोणिणीसु सम्मत्त० अणंतगुणहाणी पत्थि । पंचिंरियतिरिक्खअपज्ज०मणुसअपज्ज. छब्बीसं पयडीणं छवड्डि-हाणीणं णेरइयभंगो। अवहि० सम्म०--सम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । तिएहं मणुस्साणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि पुरिस०-चदुसंजल०-सम्मामि० अणंतगुणहाणी ओघं । मणुसिणीसु पुरिस० अणंतगुणहाणी जहण्णुक्क० एगस० । ५३६. देवाणं णेरइयभंगो। णवरि सव्वेसिमवहिदं जह० एगस०, उक्क० और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सम्पर्ण तेतीस सागर है। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि तेतीस सागरके स्थानमें पहले नरककी स्थिति लेनी चाहिये। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकिया में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अपने अपने नरककी स्थिति लेनी चाहिए। तथा सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानि दूसरे आदि नरको में नहीं होती। । ५३८. सामान्य तिर्यञ्चा में छब्बीस प्रकृतियाकी छह वृद्धियों और छह हानियोंका भङ्ग नारकिया के समान है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त अधिक तीन पल्य है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिका काल ओघके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य विभक्तिका तथा सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानि और अवक्तव्य विभक्तिका काल अोधके समान है। सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी अवस्थित विभक्तिका काल मिथ्यात्वके समान है। इतना विशेष है कि कुछ अधिकका प्रमाण पल्यका असंख्यातवाँ भाग है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियातर्यश्चपर्याप्त और पञ्चन्द्रियतिर्यश्च योनिनियों में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च योनिनियों में सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानि नहीं होती । पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तको में छह वृद्धि और छह हानियो का काल नारकिया के समान है। इनकी अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तीनो प्रकारके मनुष्या में पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चो के समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि पुरुषवेद, चारों सज्वलन और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानिका काल ओघके समान है। मनुष्यिनियों में पुरुषवेदकी अनन्तगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । ६५३९. देवामें नारकियोंके समान भंग है। इतना विशेष है कि सब प्रकृतियों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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