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________________ rrrrrrrrwww Minimuvviwww. ! जयधवलासहिदे कसायपाहुडे अणुभागविहत्ती ४ तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुण्णाणि । भवण-वाण-जोदिसि० विदियपुढविभंगो । णवरि अवहिदस्स सगहिदी । सोहम्मादि जाव सहस्सारो त्ति पढमपुढविभंगो। णवरि अवहि० सगहिदी। आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति वावीसं पयडीणमणंतगुणहाणिकालो जहएणक्क० एगस० । अवहि० ज० अंतोमु०, उक्क०सगहिदी । सम्म०-सम्मामि० देवोघं । णवरि सगहिदी । अणंताणु० चउक० छवड्डी छहाणी. देवोघं । अवहि० ज० एगस०, उक्क. सगहिदी । अवतव्व० ओघं । अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति छब्बीसं पयडीणमणंतगुणहाणी० जहएणक० एगस। अवहि. जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी। सम्मत्त० देवोघं । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० अवहि. जहण्णुक्क. सगहिदी । एवं जाणिदण णेदव्वं जोव अणाहारि त्ति ।। ५४०. अंतराणु० दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण वावीसं पयडीणं पंचवडी पंचहाणी० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क. असंखेज्जा लोगा। अणंतगुणवडी० ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । अणंतगुणहाणी० ज० अंतोमु०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयं । अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्म०-सम्मामि० अणंतगुणहाणी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है, और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियो में दूसरी पृथिवीके समान भंग है। इतना विशेष है कि अवस्थितविभक्तिका काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान भंग है। इतना विशेष है कि अवस्थितविभक्तिका काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । आनतसे लेकर नववेयक तकके देवोमें बाईस प्रकृतियो की अनन्तगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य देवो की तरह है। इतना विशेष है कि यहाँ अपनी अपनी स्थिति लेनी चाहिये । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी छह वृद्धि और छह हानियों का काल सामान्य देवो की तरह है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। अवक्तव्य विभक्तिका काल श्रोधके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकक देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। ६५४०. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे बाईस प्रकृतियोंकी पाँच वृद्धि और पाँच हानियोंका जघन्य अन्तर क्रमश: एक समय और अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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