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________________ Mirrmilarvw.urrrrrrar जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ३५. वेदाणुवादेण इत्थि०--पुरिस० मोह० अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० परिवाडीए पलिदोवमसदपुधत्तं सागरोवमसदपुधत्तं । अवगदवेदएसु मोह० उक्क० जह. एगसमओ, मरणेणुवलंभादो। उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । कसायाणुवादेण कोधकसाई० अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं माण-माया-लोहाणं । अकसाय० मोह० उक० अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। एवं जहाक्रवाद०-मुहुमसांपरायसंजदाणं । आहारककाययोगियोंमें जघन्य काल एक समय है। विशेषार्थ-कोई एक मनोयोगी या वचनयोगी उत्कृष्ट अनुभागका विनाश करके उस समय अनुत्कृष्ट अनुभागवाला हुआ जब उसके मनोयोग या वचनयोगका काल एक समय शेष रहा । इस प्रकार एक समय तक विवक्षित योगके साथ अनुत्कृष्ट अनुभागमें रहा और दूसरे समयमें योग बदल गया तो विवक्षित वचनयोग या मनोयोगमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय होता है। अथवा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला कोई जीव मनोयोगी या वचनयोगी हुआ। एक समय तक विवक्षित योगमें रहकर उसने दूसरे समयमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर लिया अथवा दूसरे समयमें मरकर अन्य काययोगी हो गया तो भी एक समय काल बन जाता है। उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त इसलिये है कि मनोयोग और वचनयोगका उत्कृष्ट काल इतना ही है । औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष एकेन्द्रिय जीवोंमें सबसे अधिक स्थिति वाले खरपृथिवीकायिक जीवके होता है। अतः उनमें अनुत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष कहा है । जो जीव उत्कृष्ट अनुभागके साथ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हुआ और उत्कृष्ट अनुभागका काल बीतने पर वह अनुत्कृष्ट अनुभागवाला हो गया उसके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और जो अनुत्कृष्ट अनुभागके साथ ही वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हुआ उसके उत्कृष्ट काल भी अन्तमुहूर्त होता है। कार्मणकाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है, अतः उसमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल भी उतना ही होता है। आहारककाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है तथा आहारकमिश्रका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः उनमें रहनेवाले उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी उतना ही काल जानना चाहिये। ३५. वेदकी अपेक्षा स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियोंमें मोहनीयकर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमशः स्त्रोवेदियोंमें सौ पृथक्त्वपल्य और पुरुषवेदियोंमें सौ पृथक्त्वसागरप्रमाण है। अपगतवेदी जीवोंमें माहनीय कमकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि यह मरणकी अपेक्षा उपलब्ध होता है। और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । कषायकी अपेक्षा क्रोध कषायवालोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार मान, माया और लोभमें जानना चाहिये । कषायरहित जीवोंमें मोहनीय कमकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार यथाख्यातसंयत और सूक्ष्म साम्परायसंयतोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-जो स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें उत्कृष्टका बन्ध करके क्रमशः आयुके अन्तमें एक समय तक अनुत्कृष्ट अनुभागके साथ रहकर अन्य वेदके साथ उत्पन्न हो गया उसके अनुत्कृष्ट अनु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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