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________________ २१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागवित्ती ४ $ ३१६. कुदो ? अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय संजुत्तपढमसमए तेसिमणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंतकम्मं कादूण विदियसमए अंतरिय सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय सम्मत्तं घेत्तूण तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय संजुत्तपढमसमए बद्धजहण्णाणुभागस्स अंनोमुहुत्तमेत्तजहणणंतरकालुवलंभादो। 8 उकस्सेण उवड़पोग्गलपरियट्ट। ___३२०. कुदो ? अणादियमिच्छाइहिम्मि समयाविरोहेण पडिवण्णपढमसम्मतम्मि पढमसम्मत्तकालब्भंतरे अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय संजुत्तपढमसमए अणंताणुबंधिचउकाणुभागं जहण्णं काऊण विदियसमए अंतरिय कमेण उवड्डपोग्गलपरिय परियट्टिय त्योवावसेसे संसारे पढमसम्मत्तं घेत्तूण अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोइय संजुत्तपढमसमए अंतरमुप्पाइय पुणो अंतोमुहुत्तेण णिव्वुअम्मि उवडपोग्गलपरियट्टमेत्तरकालुवलंभादो । एवं देसामासियचुण्णिमुत्तमवलंबिय जहण्णाणुभागंतरपरूवणं काऊण संपहि उच्चारणमस्सिदूण परूवेमो । - ३२१. जहएणए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्त-अहक० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जहपणुक० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० जहण्णाणु० णत्थि अंतरं । अज० ज० एगस०, - ३१९. क्योंकि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन करके पुनः संयुक्त होनेके प्रथम समयमें उन अनन्तानुबन्धी कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मको करके, दूसरे समयमें अन्तर आरम्भ करके सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक ठहर कर, सम्यक्त्वको ग्रहण करके, सम्यक्त्व दशामें अन्तर्मुहूर्त तक रहकर, अनन्तानबन्धीचतुष्कका विसंयोजन करके पुनः संयुक्त होनेके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभागबन्ध करनेपर अन्तर्मुहूर्तमात्र जघन्य अन्तरकाल पाया जाता है। * उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम अर्धपुद्गलपरावर्तनप्रमाण है ? ___ ३२०. क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके आगमके अविरुद्ध प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करके, प्रथम सम्यक्त्वके कालके भीतर अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजन करके, संयुक्त होनेके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य अनुभाग करके तथा दूसरे समयमें अन्तर प्रारम्भ करके क्रमसे कुछकम अर्धपुद्गलपरावर्तन कालतक परिभ्रमण करके, संसार भ्रमणका काल थोड़ा अवशेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करके, अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजन करके, पुनः संयुक्त होनेके प्रथम समयमें जघन्य अनुभागके अन्तरकालको उत्पन्न करके पुनः अन्तमुहूते बाद मोक्ष चले जानेपर कुछकम अर्धपुद्गल परावर्तन मात्र अन्तरकाल पाया जाता है। इस प्रकार देशामर्षक चूर्णिसूत्रोंका अवलम्बन लेकर जघन्य अनुभागसत्कर्मके अन्तरका कथन किया। अब उच्चारणाका अवलम्बन लेकर कहते हैं। . ३२१. प्रकृतमें जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वे और आठ कषायोंके जघन्य अनभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य अनभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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