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________________ २०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ विसंजोयणा, णोकम्मसरूवेण परिणामो खवणा ति अत्थि दोण्हं पि लक्खणभेदो । ण च अणंताणुबंधीणं व संछोहणाए वि णहासेसकम्माणं विसंजोयणं पडि भेदाभावादो पुणरुप्पत्ती, आणुपुव्वीसंकमवसेण लोभभावं गंतूण अकम्मसरूवेण परिणमिय खवणभावमुवगयाणं पुणरुप्पत्तिविरोहादो। अणंताणुबंधीणं व मिच्छत्तादीणं विसंजोयणपयडिभावो आइरिएहि किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, विसंजोयणभावं गंतूण पुणो णियमेण खवणभावमुवणमंति त्ति तत्थ तदणुब्भुवगमादो। ण च अणंताणुबंधीसु विसंजोइदासु अंतोमुहुत्तकालब्भंतरे तासिमकम्मभावगमणणियमो अत्थि जेण तासि विसंजोयणाए खवणसण्णा होज्ज । तदो अणंताणुबंधीणं व सेसविसंजोइदपयडीणं ण पुणरुप्पत्ती अस्थि ति सिद्धं । _ मिच्छत्त-अट्ठकसायाणं जहण्णाणुभारासंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो होदि? रहना विसंयोजना है। और कर्मका नोकर्म अर्थात् कर्माभावरूपसे परिणमन होना क्षपणा है। इसप्रकार दोनोंके लक्षणों में भेद है। यदि कहा जाय कि प्रदेश क्षेपणसे नष्ट हुए अशेष कर्मोमें विसंयोजनाके प्रति कोई भेद नहीं है अतः अनन्तानुबन्धीकी तरह उन कर्माकी भी पुन: उत्पति हो जायेगी सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि आनुपूर्वीसंक्रमके कारण लोभपनेको प्राप्त होकर अकर्मरूपसे परिणमन करके नष्ट हुई उन प्रकृतियोंकी पुन: उत्पत्ति होने में विरोध है। शंका-अनन्तानुबन्धीकी तरह मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंको भी प्राचार्योने विसंयोजना प्रकृति क्यों नहीं माना ? समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व आदि प्रकृतियाँ विसंयोजनपनेको प्राप्त होकर अनन्तर नियमसे क्षय अवस्थाको प्राप्त होती हैं, इसलिये उनमें विसंयोजनपना नहीं माना गया। किन्तु अनन्तानुबन्धी कषायोंका विसंयोजन होनेपर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर उनके अकर्मपनेको प्राप्त होनेका नियम नहीं है जिससे उनकी विसंयोजनाकी क्षपणसंज्ञा हो जाय । अतः अनन्तानन्धीकी तरह शेष विसंयोजित प्रकृतियोंकी पुन: उत्पत्ति नहीं होती, यह सिद्ध हुआ। विशेषार्थ-जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तर सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन और नव नोकषायोंमें नहीं होता, क्योंकि इनका जघन्य अनुभाग क्षपणकालमें होता है अत: एक बार नष्ट होकर पुनः वह उत्पन्न नहीं हो सकता । इस पर यह शंका की गई कि अनन्तानुबन्धीकी तरह इन प्रकृतियोंका क्षपण हो जाने पर भी पुन: उत्पति हो जानी चाहिये । इसका उत्तर दिया गया कि अन तानुबन्धीकी क्षपणा नहीं होती, विसंयोजना होती है । तब पुन: शंका हुई कि दोनों में अन्तर क्या है तो उत्तर दिया गया कि एक कमके अन्य कर्मरूपसे संक्रमण करके अवस्थित रहनेको विसंयोजना कहते हैं, और कर्मका अभाव हो जानेको क्षपणा कहते हैं । यद्यपि संज्वलन क्रोध मानरूपसे, मान मायारूपसे और माया लोभ रूपसे संक्रमण करते हैं किन्तु संक्रमण करके वे अवस्थित नहीं रहते किन्तु उनका विनाश हो जाता है परन्तु अनन्तानुबन्धीमें यह बात नहीं है अत: अनन्तानुबन्धीकी तरह उक्त पन्द्रह प्रकृतियोंकी पुन: उत्पत्ति नहीं होती, इसलिये उनके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तर भी नहीं होता। * मिथ्यात्व, और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल कितना है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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