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________________ १३६ अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ सण्णा सा दुविहा-सव्वघादि-देसघादिभेएण । ठाणसण्णा चउव्विहा लदा-दारु अहिसेलभेएण। * ताओ दो वि एक्कदो णिज्जंति । ६ १६७. जाओ दो वि सण्णाओ पुव्वं परूविदाओ ताओ एकदो एकवारं चेव णिज्जति कहिज्जंति परूविज्जति ति घेत्तव्वं ।। मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जहएणयं सव्वघादि दुट्ठाणियं । १६८. सेसकम्मपडिसेहफलो मिच्छत्तणि सो । हिदि-पदेससंतकम्मादिपडिसंहफलोअणुभागासंतकम्मणिद्देसो। उक्कस्सपडिसेहफलो जहण्णयं ति णिद्देसो। देसधादिपडिसेहफलो सव्वघादिणिद्देसो । मिच्छत्ताणुभागफद्दयरयणाए मिच्छत्तस्स जहण्णफद्दयं सव्वघादि ति पुव्वं परूविदं चेव । कुदो ? सव्वघादित्तणेण सक्खा [संखा] परूविदसम्मामिच्छत्तुक्कस्सफदयं पेक्खिदण अणंतगुणतादो। तदो मिच्छत्तजहण्णाणुमागसंतकम्मं सव्वघादि ति ण वत्तव्वमिदि ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-फद्दयरयणा णाम सव्वघादित्तमसव्वघादित्तं च ण परूवेदि किंतु केवलं फद्दयरयणं चेव परूवेदि, देशघातीके भेदसे दो प्रकारकी है। तथा स्थानसंज्ञा लता, दारु, अस्थि और शैलके भेदसे चार प्रकारकी है। * आगे उन दोनों संज्ञाओंको एक साथ कहते हैं । १९७. जो दो संज्ञाएँ पहले कही हैं, उन्हें एक साथ ही बतलाते हैं अर्थात् कहते हैं प्ररूपणा करते हैं ऐसा अर्थ यहाँ लेना चाहिये। अर्थात् आगे उन दोनों संज्ञाओंका एक साथ विशेषार्थ-मोहनीयकर्मके अनुभागस्पर्धको की दो संज्ञाएँ हैं-घाती और स्थान । यत: वे अनुभागस्पर्धक जीवके गुणों का घात करते हैं, अत: उन्हें घाती कहते हैं और यत: वे लता, दारु, अस्थि और शैलका जैसा स्वभाव है वैसे स्वभावको लिए हुए हैं, अतः इन्हें स्थान कहते हैं। घातीसंज्ञाके दो भेद हैं-सर्वघाती और देशघाती। तथा स्थानसंज्ञाके चार भेद हैं-लता. दारु, अस्थि और शैल । आगे इन दोनों संज्ञाओ का एकसाथ कथन करते हैं। * मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानिक है। ६ १९८. शेष काँका प्रतिषेध करनेके लिये मिथ्यात्व पदका निर्देश किया है। स्थिति सत्कर्म और प्रदेशसत्कर्म आदिका प्रतिषेध करनेके लिये अनुभागसत्कर्म पदका निर्देश किया है। उत्कृष्टका प्रतिषेध करनेके लिये जघन्यपदका निर्देश किया है । देशघातीका प्रतिषेध करनेके लिये सर्वघाती पदका निर्देश किया है। शंका-मिथ्यात्वके अनुभागस्पर्धकोंकी रचनामें मिथ्यात्वका जघन्य स्पर्धक सर्वघाती है ऐसा पहले कहा ही है, क्योंकि पहले सर्वघातिरूपसे कहे गये सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा इसका अनुभाग अनन्तगुणा है, अत: यहाँ मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती है ऐसा नहीं कहना चाहिए ? ...समाधान-यहाँ परिहार करते हैं-स्पर्धकरचना सर्वघातित्व और असर्वघातित्वको नहीं बतलाती है, किन्तु केवल स्पर्धकरचनाका ही कथन करती है, क्योंकि उसीमें उसका व्यापार कथन करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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