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________________ गा० २२ 1 अगुभागविहत्तीए सण्णा १४१ समाधान किया गया है उसे समझने के लिये स्पर्धकका स्वरूप जानना आवश्यक है जो इस प्रकार है -एक अनुभागस्थानके सब परमाणुओंको एक जगह स्थापित करके उनमेंसे सबसे जघन्य अनुभागवाले परमाणुको लो । उस परमाणुमें पाये जानेवाले रूप, रस और गंधको छाड़कर स्पर्शगुणके बुद्धिके द्वारा छेद करो । छेद करते करते जो अन्तिम अछेद्य खण्ड अवशेष रहे उसकी अविभागीप्रतिच्छेद संज्ञा है। उस अविभागी प्रतिच्छेदरूपसे स्पर्शगुणका छेदन करने पर एक परमाणुमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागीप्रतिच्छेद पाये जाते हैं। उन सबको वर्ग कहते हैं । यद्यपि एक वर्गमें अनन्त अविभागीप्रतिच्छेद होते हैं तथापि समझनेके लिये उनकी संख्या ८ कल्पना कर लेनी चाहिये । पुन: उन परमाणुओंमेंसे उस एक परमाणुके समान दूसरे परमाणुको लो। उसके स्पर्शगुणके भी पहले के समान बुद्धिके द्वारा छेद करने पर उसमें भी उतने ही अविभागीप्रतिच्छेद पाये जाते हैं। इस दूसरे वर्गकी सहनानी भी ८ समझना चाहिये। इस क्रमसे उन परमाणुओं से पहले परमाणु के समान एक एक परमाणुको लेकर उनमेंसे प्रत्येकके अविभागीप्रतिच्छेद करने पर एक एक वर्ग उत्पन्न होता है, उनकी संदृष्टि इस प्रकार समझनी चाहिये ८, ८, ८,८। अर्थात् अविभागीप्रतिच्छेदोंके समूहको वर्ग कहते हैं और चूकि एक एक परमाणुमें अनन्त अविभागीप्रतिच्छेद पाये जाये हैं, अत: प्रत्येक परमाणु एक एक वर्ग है । इन वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं। इस वर्गणाको एक ओर स्थापित करके उन परमाणुओंमेसे पुन: एक परमाणु को लो और बुद्धि के द्वारा पहलेकी तरह उसके छेद करो। छेद करने पर इस परमाणुमेंसे पहले परमाणुओंसे एक अधिक अविभागीप्रतिच्छेद पाये जाते हैं जिसकी सहनानी ९ है। इस एक वर्ग को अलग स्थापित करो । इस क्रमसे इस एक परमाणुके समान जितने परमाणु उन परमाणुओं मेंसे पाये जायें उन्हें लेकर और बुद्धिके द्वारा प्रत्येकका छेदन करके वर्गोंकी उत्पत्ति कर लेनी चाहिये । उनका प्रमाण इस प्रकार है-९, ९, ९। यह दूसरी वर्गणा हुई। इस प्रकार एक एक अधिक अविभागीप्रतिच्छेदवाले परमाणुओंसे तीसरी, चौथी, पाँचवीं आदि वर्गणाएँ उत्पन्न कर लेनी चाहियें। इसप्रकार उत्पन्न की गई अभव्यराशिसे अनन्तगुनी और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणाओंका एक स्पर्धक होता है। इस स्पर्धकको पृथक स्थापित करके पूर्वोक्त परमागुओंमेंसे पुनः एक परमाणुको लो। बुद्धिके द्वारा उसके छेद करनेपर सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागीप्रतिच्छेदोंका अन्तर देकर दूसरे स्पर्धकका प्रथम वर्ग उत्पन्न होता है। संदृष्टिरूपमें उसका प्रमाण १६ समझना चाहिये। इस क्रमसे अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्वराशिके अनन्तवं भागप्रमाण अविभागीप्रतिच्छेदवाले परमाणुओंको ग्रहण करके परमाणुमात्र वर्गों के उत्पन्न करने पर दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है। इसे प्रथम स्पर्धककी अन्तिमवर्गणाके आगे अन्तराल देकर स्थापित करना चाहिये। इस क्रमसे वर्ग वर्गणा और स्पधेकको जानकर तब तक स्पर्धक उत्पन्न करना चाहिये जब तक पूर्वोक्त परमाणु समाप्त न हो जाँय । इसप्रकार स्पर्धक रचना के करनेपर अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धक और वर्गणाएँ उत्पन्न होती हैं। इनमेंसे अन्तिम वर्गणाके एक परमाणुमें जो अनुभाग पाया जाता है उसीको अनुभागस्थान कहते हैं। इस परसे यह शंका हो सकती है कि अविभागी प्रतिच्छेदोंके समूहको वर्ग, वर्गाके समूहको वर्गणा, वर्गणाओंके समूहको स्पर्धक और स्पर्धकोंके समूहको अनुभागस्थान करते हैं, किन्तु ऊपर अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणुमें जो अनुभाग पाया जाता है उसे ही अनुभागस्थान क्यों कहा है। इसका समाधान यह है कि प्रथमवर्गसे लेकर क्रमसे बढ़ते हुए सब अविभागीप्रतिच्छेद उस एक परणाणु में पाये जाते हैं, अत: सब अनुभागका स्थान होनेसे अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाका एक परमाणु अनुभागस्थान कहा जाता है। जैसे मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ७, कोटी कोटी सागर होती है। यह उत्कृष्टस्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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