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________________ गा० २२ ] अणुभागवित्तीय पोस 0-. ● -- 0 $ ११३. तिरिक्खेषु जह० अज० सव्वलोगो । एवमेइंदिय- बादरेइं दिय- बादरेइं दियपज्जतापज्जत - मुहुमेइं दिय- सुहुमेइ दियपज्जत्तापज्जत पुढवि० - बादरपुढवि०-- बादरपुढविअपज्ज० -- सुहुम पुढवि०-- सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त आउ०- बादरआउ०- बादरआउअपज्ज०-- सुहुम आउ० · सुहुम आ उपज्जत्तापज्जत्त - तेज ०-- वादरतेड - बादरतेउअपज्ज ०. सुहुमते उ० -- मुहुमते उपज्जता पज्जत - वाउ०- बादरवाड० - बादरवाउअपज्ज० -- सुहुमवाउ०मुहुमवा उपज्जतापज्जत्त-- सव्ववणफदि -- सव्वणिगोद ० --ओरालियमिस्स ०- कम्मइय ०मदिअण्णा०-- सुद अण्णा०-- असंजद० -- किण्ह - णील - काउ० - अभवसि ०--मिच्छादिहिसण- अणाहारिति । 0- ३ ११४. सव्वपंचिंदियतिरिक्ख मणुस अपज्ज० ज० अज० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । एवं सव्वविगलिंदिय-पंचिदिय अपज्ज० -- बादर पुढविपज्ज० -- बादरआउपज्ज० - बादर ते उपज्ज० - बादरवणफदिपत्तेयसरीरपज्ज० तस अपज्जत्ताणं । .७३ $ ११३. तिर्योंमे जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पृथिवी कायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, तैजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म तैजस्कायिक, सूक्ष्म तैजस्कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म तैजस्कायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोदिया, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयत, कृष्ण लेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-तियंवों में जो सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव हतसमुत्पत्तिककर्मवाले होते हैं उनके मोहनीयका जघन्य अनुभाग होता है और ये जिनमें इस अनुभागके साथ उत्पन्न होते हैं उनमें भी जघन्य अनुभाग होता है । यतः ऐसे जीवो का स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण सम्भव है, अत: तिर्यों में जघन्य अनुभागवालों का सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है । तथा तिर्यञ्च सर्व लोकमें पाये जाते हैं, अत: इनमें अजघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन भी सब लोकप्रमाण कहा है। यहाँ तिर्यों के समान अन्य जिन मार्गणाओं में मोहनीयके जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंके स्पर्शनके जानने की सूचना की है वहाँ इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । $ ११४. जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले सब पञ्च ेन्द्रियतिर्यश्व और मनुष्य अपर्याप्तकोंने लोकके असंख्यातवें भागका और सर्व लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय, पजेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर तैजस्कायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिप्रत्येकशरीर पर्याप्त और त्रस अपर्याप्तकों के जानना चाहिए । विशेषार्थ - जो हतसमुत्पत्तिकर्मवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में और मनुष्य अपर्याप्तको में उत्पन्न होते हैं और यदि उन्होंने अनुभागको नहीं बढ़ाया है तो उनके जघन्य अनुभाग होता है। ऐसे जीवों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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