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________________ جدی می به نیمای ~ ~ ~ ~~ ~ ~ ~ ~~ ~ गा० २२] अनुभागविहत्तीए पदणिक्खेवे अप्पाबहुअं णवरि सम्मत्तवजं । जोदिसिय विदियपुढविभंगो । एवं सोहम्मादि जाव सहस्सारो त्ति । णवरि सम्मत्त० रइयभंगो।। ५२५. आणदादि जाव सव्वहसिद्धि ति छब्बीसं पयडीणं जहणिया हाणी कस्स ? अणंताणु० चउक्क० विसंजोयंतेण अपच्छिमे अणुभागखंडए हदे तस्स जह० हाणी। तस्सेव से काले जहण्णमवहाणं । सम्मत्त० ज० देवोघं । णवरि अणंताणु० चउक्कस्स दुचरिमे अणुभागखंडए हदे तस्स जहणिया हाणी । तस्सेव से काले जहण्ण मवहाणं । णवरि आणदादि जाव णवगेवज्जा ति अणंत्ताणु०४ ओघं। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।। ५२६. अप्पाबहुअं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं। दुविहो णि०ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसं पयडीणं सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी। वडी अवहाणाणि दो वि सरिसाणि विसेसाहियाणि । सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं णत्थि अप्पाबहुअं, उक्क० हाणि-अवहाणाणं सरिसत्तादो । एवं तिण्हं मणुस्साणं।। $ ५२७. आदेसेण जेरइएसु छब्बीसं पयडीणमोघं । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्खचउक्क०-देवोघं भवणादि जाव सहस्सारो त्ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. छब्बीसं पयपृथिवीके समान भङ्ग है । इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिको छोड़ देना चाहिए । ज्योतिषी देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। इसी प्रकार सौधर्मसे लेकर सहस्रार तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि यहाँ सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है। ५२५. आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में छब्बीस प्रकृतियों की जघन्य हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन करनेवाले जीवके द्वारा अन्तिम अनुभाग काण्डकका घात किये जाने पर जघन्य हानि होती है। उसीके अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य हानिका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कके द्विचरम अनुभाग काण्डकका घात किये जाने पर उसकी जघन्य हानि होती है और उसीके अनन्तर समयमें उसका जघन्य अवस्थान होता है। इतना विशेष और है कि आनतसे लेकर नवप्रैवेयक तकके देवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । ५२६. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । प्रकृतमें उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि सबसे अल्प है । उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान दोनों समान हैं किन्तु उत्कृष्ट हानिसे कुछ अधिक हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि उनकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थानका प्रमाण समान है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। ६५२७. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ओषके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त, पञ्चेन्द्रियतियञ्च योनिनी, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे अल्प है। उत्कृष्ट हानि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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