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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविती ४ पादेकमसंखेज्जभेयभिण्णदण्डं वडीणं विसेसपरूवणादुवारेण द्वाणपरूवणाए अपुव्वपमेयोवलं भादो । तासि वट्टीणं सगंतव्भूदविसेसपरूवणहमुत्तरस्रुतं भणदि* सव्वत्थोवाणि बंधसमुप्पत्तियाणि । $ ५७१. एत्थ अणुभागहाणाणि ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे, अण्णा सुत्तत्थाणुववत्तदो । सव्वत्थोवाणि बंधसमुप्पत्तियद्वाणाणि त्ति एदेण सुत्तेण उवरि भणिस्समाघादाहिंतो बंधहाणाणं थोवत्तं चैव जेण परूविदं तेण णाणुभागहाणाणि - ओगद्दारं छण्णं वड्ढीणं विसेसपरूवयमिदि ? ण, देसामासियभावेण परुविदतव्विसेसादो | संपहिएदेण मुत्तेण मृइदत्थपरूवणं कस्साम । तं जहा - सुहुमणिगोदस्स सव्वजहण्णारणुभागसंतद्वाणं सव्वाणुभागद्वाणाणं पढमं होदि; एदम्हादो हेट्ठा अण्णेसिं मिच्छत्ताणुभागसंतकम्मट्ठाणाणमभावादो । एत्थेव जहरणं होदित्ति कुदो णव्वदे ? ३३२ कथन नहीं करना चाहिये ऐसी शंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि छह वृद्धियोंके असंख्यात भेद हैं, उनमें से प्रत्येकका विशेष कथन होनेसे स्थान प्ररूपणा में अपूर्व विषयका कथन पाया जाता है । ―――― विशेषार्थ - सत्कर्मस्थान तीन प्रकारके होते हैं । कर्मका बन्ध होनेपर जिस कर्मस्थानकी प्राप्ति होती है उसे बन्धसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान कहते हैं अर्थात् बन्धसे उत्पन्न होनेवाला सत्कर्मस्थान । उस कर्मस्थानके अनुभागका घात किये जानेपर जो सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है उसे हतसमुत्पत्तिक कर्मस्थान कहते हैं। तथा उस घातसे उत्पन्न सत्कर्मस्थानके अनुभागका पुनः घात करने पर जो सत्कर्मस्थान होता है उसे हतहतसमुत्पत्तिक कर्मस्थान कहते हैं। ऊपर शंका की गई है कि इन सत्कर्मस्थानोंका कथन तो प्रकारान्तरसे पहले कर ही आये हैं पुनः उनके कहने की क्या आवश्यकता है तो उसका समाधान किया गया है कि पहले वृद्धि विभक्ति में छह वृद्धियों की अपेक्षा ही कथन किया है, किन्तु यहाँ उन वृद्धियों के असंख्यात अनन्तर भेदों में से प्रत्येक भेदकी अपेक्षा वृद्धिका कथन किया गया है यही इस कथनमें विशेषता: है । --- उन वृद्धियोंके अन्तभूत विशेषोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं* बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सबसे थोड़े हैं । ९५७१ इस सूत्र में पूर्वसूत्र से अनुभागस्थान शब्दकी अनुवृत्ति आती है, उसके बिना सूत्रका अर्थ नहीं हो सकता है । शंका- सबसे थोड़े बन्धसमुत्पत्तिक स्थान हैं इस सूत्र के द्वारा आगे कहे गये हतसमुत्पत्तिक स्थानों से बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंको थोड़ा बतलाया है, अत: यह अनुभागस्थान नामक अनुयोगद्वार छह वृद्धियोंके विशेषका प्ररूपक नहीं है । समाधान- नहीं, क्योंकि देशामर्षकरूपसे इसके द्वारा वृद्धियोंके विशेषका कथन किया गया है। अर्थका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है- सूक्ष्म निगोदिया जीवका सबसे जघन्य अनुभागसत्त्वस्थान सब अनुभागस्थानों में प्रथम है, क्योंकि उससे नीचे मिथ्यात्व के अन्य अनुभाग सत्त्वस्थानोंका अभाव I शंका- सूक्ष्म निगोदिया जीवके ही सबसे जघन्य अनुभागसत्त्वस्थान होता है यह किस प्रमाणसे जाना ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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