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________________ २६३ गा० २२] अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुअं ॐ णवुसयवेदस्स जहएणाणभागो अणंतगुणो। १६४४०. जत्थ इत्थिवेदोदएण खवगसेढिं चढिदस्स जहण्णाणुभागो इत्थिवेदस्स जादो । जदि वि तत्थेव णqसयवेदोदएण खवगसेढिं चढिदस्स णqसयवेदाणुभागो जहण्णो जादो तो वि अणंतगुणो, इटावग्गिसमाणतादो । तं पि कुदो ? पयडिविसेसादो। सम्मामिच्छत्तस्स जहएणाणुभागो अणंतगुणो । . ४४१. कुदो ? सव्वघादिवेढाणियत्तादो । णqसयवेदजहण्णाणुभागो जेण देसघादी एगहाणिओ तेण सव्वघादि-वेढाणियसम्मामिच्छत्तजहण्णाणुभागो अणंतगुणो त्ति भणिदं होदि। * अणंताणुबंधिमाणजहणणाणुभागो अणंतगुणो । ४४२. सम्मामिच्छत्तजहण्णाणुभागो व्व अणंताणुबंधिमाणाणुभागो सव्वघादी विद्वाणिओ संतो कथमणंतगुणो जादो ? उच्चदे-सम्मामिच्छत्तजहण्णफद्दयप्पहुडि अणंताणुबंधीणं फद्दयरचणा अवहिदा, सव्वघादित्तादो। तेण पढमसमयसंजुत्तस्स जहण्णाणुभागबंधफद्दयाणं रचणा वि सम्मामिच्छत्तजहण्णाणुभागफद्दयप्पहुडिं होदि । होती वि * उससे नपुसकवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। ४४०. जिस स्थानमें स्त्रीवेदके उदयसे क्षपक श्रेणि चढ़नेवाले जीवके स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग होता है, यद्यपि उसी स्थानमें नपुंसकवेदके उदयसे क्षपकणि चढ़नेवाले जीवके नपुंसक वेदका जघन्य अनुभाग होता है। फिर भी स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागसे नपुंसकवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है, क्योंकि नपुंसकवेद इष्ट पाककी अग्निके समान होता है । शंका-नपुंसकवेद इष्ट पाककी अग्निके समान क्यों होता है ? समाधान-क्योंकि वह एक विशेष प्रकृति है। * उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग अनन्त गुणा है । ४४१. क्योंकि वह सर्वघाती और द्विस्थानिक होता है। तात्पर्य यह है कि नपुंसकवेद का जघन्य अनुभाग देशघाती और एकस्थानिक है, और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग सर्वघाती और द्विस्थानिक है, अत: वह उससे अनन्तगुणा है। 8 उससे अनन्तानुवन्धिमानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । ६४४२. शंका-सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभाग की तरह सर्वघाती और द्विस्थानिक होता हुआ भी अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा कैसे है ? समाधान-सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्पर्धकसे लेकर अनन्तानुबन्धी कषायोंकी स्पर्धक रचना अवस्थित है, क्योंकि वह सर्वघाती है। अत: अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होनेके प्रथम समयमें जघन्य अनुभागबन्धके स्पर्धकोंकी रचना भी सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागस्पर्धकसे प्रारम्भ होती है। इस प्रकार प्रारम्भ होकर भी अनन्तानुबन्धी कषायोंके जघन्य अनुभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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