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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीप सामित्तं १५९ * असंखेजवस्साउएसु मणुस्सोववादियदेवेसु च पत्थि । २३३. असंखेजवस्साउएसु ति वुचे भोगभूमियतिरिक्ख-मणुस्साणं गहणं, ण देन-णेरइयाणं । कुदो १ रूढिवसादो । भोगभूर्म सु ओसप्पिणी-उसप्पिणीणमवसाणे आदीए च संखेजवस्साउअतिरिक्ख-मणुस्साणं पि अदो चेव असंखेज्जवस्साउअत्तं । वुप्पत्तिणिरवेक्खो असंखेज्जवस्साउअसदो भोगभूमियतिरिक्ख-मणुस्सेसु संखेज्जवस्साउएसु असंखेज्जवस्साउएसु च वट्टदि ति भणिदं होदि । ___$ २३४. मणुस्सोववादियदेवेसु त्ति वुत्ते आणदादिउवरिमसव्वदेवाणं गहणं, मणुस्सेसु चेव तेसिमुप्पत्तीदो। कुदोवहारणोवलद्धी? मणुस्सोववादियदेवेसु त्ति विसेसणादो। तं जहा-सव्वे देवा मणुस्सोववादिया, पडिसेहाभावादो । तदो फलाभावादोण विसेसणं लिये श्रागेका सूत्र कहते हैं * किन्तु वह असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें और केवल मनुष्योमें उत्पन्न होनेवाले देवोमें उत्पन्न नहीं होता है। २३३. असंख्यात वर्ष की आयुवालोंमें ऐसा कहने पर उससे भोगभूमिया तिर्यञ्च और मनुष्योंका ग्रहण हाता है, देव और नारकियोंका नहीं क्योंकि रूढ़ि हो ऐसी है। भोगभूमियोंमें अवसर्पिणी कालके अन्तमें और उत्सर्पिणी कालके आदिमें हानेवाले सख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्य भी इसी सूत्रके बलसे असंख्यातवर्षायु क कहे जाते हैं । तात्पर्य यह है कि व्युत्पत्तिकी अपेक्षा न करके यह असंख्यातवर्षायुष्क शब्द संख्यात वर्षकी आयुवाले और असंख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमिया तिर्यञ्च और मनुष्योंमें रहता है। विशेषार्थ-'असंख्यातवर्षायुष्क' शब्दसे भोगभूमियोंका ग्रहण किया जाता है। किन्तु भरत और ऐरावतमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालका परिणमन सदा होता रहता है तथा अवसर्पिणी कालके प्रारम्भके तीन कालोंमें और उत्सर्पिणी कालके अन्तके तीन कालोंमें भोगभूमि रहती है, अतः जब अवसर्पिणी कालका तीसरा काल समाप्त होने लगता है तो उस समयके तिर्यश्च मनुष्योंकी आयु असंख्यात वर्षकी न होकर संख्यात वर्षकी होने लगती है। इसी प्रकार उत्सर्पिणी कालके चौथे कालके प्रारम्भमें भी जब कि भोगभूमि प्रारम्भ होती है भरत और ऐरावतके तिर्यञ्च और मनुष्योंकी आयु संख्यात वर्षकी होती है, अत: असंख्यातवर्षायुष्क शब्दका जा व्युत्पत्ति अर्थ असंख्यात वर्षकी आयुवाला किया है, यदि वह अर्थ लिया जाता है तो संख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमियोंका ग्रहण नहीं होता है, अतः व्युत्पत्ति अर्थकी अपेक्षा न करके असंख्यातवर्षायुष्क शब्दसे भोगभूमिया मनुष्य और तिर्यञ्चोंका ग्रहण करना चाहिये चाहे वे संख्यात वर्षकी आयुवाले हों या असंख्यात वर्षकी आयुवाले हों। उनमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला जीव जन्म नहीं लेता। २३४. मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले देवोंमें ऐसा कहने पर आनत स्वर्गसे लेकर ऊपरके सब देवोंका ग्रहण होता है, क्योंकि उनकी उत्पत्ति मनुष्योंमें ही होती है। शंका-मनुष्योंमें ही उत्पन्न होनेवाले देवाका ग्रहण किया है, इस प्रकारका अवधारण कहाँसे लिया ? समाधान- मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले देवोंमें इस विशेषणसे । इसका खुलासा इस प्रकार है-सभी देव मनुष्यों में उत्पन्न हो सकते हैं, क्योंकि मनुष्योंमें उनकी उत्पत्तिका निषेध नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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