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________________ १६० जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ फलवंतमिदि । ण च णिष्फलं सुत्तं होदि, अव्ववत्थावत्तदो । तम्हा अवहारणस्स अत्थित्तमवगम्मदिति । एदेसु उक्कस्साणुभागसंतकम्मं णत्थि, तं घादिय विद्याणियं करिय पच्छा सुपत्तदो । ण च तत्थ उकस्साणुभागबंधो वि अस्थि, तेउ-पम्म - सुक्कलेस्साहि तिरिक्ख- मणुस्सेसु सुकलेस्साए देवेसु च उक्कस्साणुभागबंधाभावादो । * एवं सोलसकसाय- एवणोकसायाणं । २३५. जहा मिच्छत्त उकस्साणुभागस्स सामित्तं परूविदं तहा सोलसकसायणवणोकसायाणं पिपरूवेदव्वं, विसेसाभावादो। एत्थ 'च' सदो समुच्चयहो किण्ण परुविदो ? ण, तेण विणा वि तदट्ठोवलद्धीदो । * सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मं कस्स ? २३६. सुगममेदं । * दंसणमोहक्खवगं मोत्तण सव्वस्स उक्कस्सयं । ९ २३७. कुदो ? दंसणमोहक्खवयं मोत्तूण अण्णत्य सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमणुभागखंडयघादाभावादो । पढमसम्मत्तप्पत्तीए अणंताणुबंधिविसंजोयणाए चारितमोह अत: दूसरा कोई फल न होनेसे विशेषण निष्फल हो जायगा । और सूत्र निष्फल नहीं होता, क्योंकि इससे अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है, इसलिए इस सूत्र में अवधारणके अस्तित्वका ज्ञान होता है । इन जीवों में उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं है, क्योंकि उसका घात करके उसे द्विस्थानिक कर लेने के पश्चात् ही इनमें उत्पत्ति होती है । और उनमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी नहीं होता । इसका कारण यह है कि भोगभूमि में पर्याप्त अवस्थामें तीन शुभ लेश्याएं ही हैं और नत स्वर्ग से लेकर ऊपरके देवों में केवल शुक्ल लेश्या ही है। तथा तेज, पद्म और शुक्ललेश्या के रहते हुए तिर्यञ्च मनुष्यों में और शुकुलेश्या के रहते हुए देवोंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं हो सकता । * इसी प्रकार सोलह कषाय और नव नोकपायोंके भी स्वामित्वका कथन कर लेना चाहिये । ९ ३३५. जैसे मिध्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग के स्वामीका कथन किया उसी प्रकार सोलह कषाय और नव नोकषायोंके स्वामित्वका भी कथन कर लेना चाहिये, उससे इसमें कोई भेद नहीं है। शंका- इस सूत्र में समुच्चयार्थक 'च' शब्द क्यों नहीं कहा ? समाधान- नहीं, क्योंकि उसके बिना भी उसके अर्थका ज्ञान हो जाता है 1 * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? $ २३६ यह सूत्र सरल है । * दर्शनमोहके क्षपकको छोड़कर शेष सबके उत्कर्ष अनुभागसत्कर्म होता है । ९ २३७. क्योंकि दर्शनमोहके क्षपकको छोड़कर अन्यत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अनुभागका काण्डकघात नहीं होता है । शंका- प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और चरित्रमोहकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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