SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए अंतरं २०१ अंतरं। ३०३. कालाणियोगद्दार परूविय संपहि मंदमेहाविजणाणुग्गहहमंतरं परूवेमि त्ति भणिदं होदि। * मिच्छत्त-सोलसकसाय--णवणोकसायाणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ३०४. सुगमं । • जहरणेण अंतोमुहुत्तं । ३०५. उक्कस्साणुभागसंतकम्मिएण तमणुभागखंडयघादेण धादिय अणुक्कस्साणुभागेण सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तकालमंतरिय संकिलेसमावूरिय उक्कस्साणुभागे पबद्धे सवजहण्णंतोमुत्तमेत्तअंतरकालुवलंभादो। 2 उकस्सेण असंखेजा पोग्गलपरियड़ा। s ३०६. उक्कस्साणुभागसंतकम्मियस्स तं घादिय अणुक्कस्साणुभागसंतकम्ममुवणमिय एइंदिएमुप्पज्जिय आवलियाए असंखे० भागमेतपोग्गलपरिय? परियट्टिदूण काण्डकमें वर्तमान रहता है तब अनन्तानबन्धीका जघन्य अनुभाग होता है, क्योंकि यहाँ विसंयोजन करके पुन: संयोजन नहीं होता, अत: उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सौधर्मादिकमें अनन्तानुबन्धीके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय मरणकी अपेक्षा है, क्योंकि संयुक्त होनेके प्रथम समयमें जघन्य अनभाग होता है। दूसरे समयमें अजघन्य अनुभाग करके यदि मर जावे तो एक समय काल होता है। तथा अनुदिशादिकमें अन्तमुहूर्त काल कहा है, क्योंकि अजघन्य अनभागवाला देव पर्याप्त होकर यदि अनन्तानबन्धीका विसंयोजन कर डालता है तो जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त होता है। * अब अन्तर कहते हैं। $ ३०३. कालानियोगद्वारको कहकर अब मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिये अन्तर कहता हूँ ऐसा इस सूत्रका तात्पर्य है। * मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल कितना है ? ६३०४. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूत है। ६३०५. उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला जीव उस उत्कृष्टका अनुभागकाण्डकघातके द्वारा घात करके अनुत्कृष्ट अनुभाग करता है और सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक उसका अन्तर देकर संक्लेश परिणाम करके पुन: उसके द्वारा उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करने पर उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर काल सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण पाया जाता है। * उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है । $३०६. उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला जीव उत्कृष्ट अनुभागका घात करके उसे अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म बनाकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। वहां आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गल २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy