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________________ ३७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ भागवडिहाणाणं चरिमअणंतभागवडिहाणे ति । एत्थ हाणंतर-फद्दयंतर-पक्खेवफद्दयसलागाणं संखाणं परूवणा जहा पढमअणंतभागवडिहाणकंडए कदा तहा कायव्वा, अविसेसादो। ६६१४. पुणो कंडयस्स चरिममणंतभागवडिहाणमसंखेजलोगेहि खंडिय तत्थेगखंडे तत्थेव पक्खित्ते विदियमसंखेजभागवड्डिताणमुप्पज्जदि । एत्थ पक्खेवफद्दयसलागपमाणस्स हाणंतर-फद्दयंतराणं पमाणस्स य परूवणा पुव्वं व कायव्वा । एवं णेदव्वं जाव कंडयमेत्ताणमसंखेजभागवड्डीणं चरिमअसंखेज्जभागवडिहाणं ति । तदुवरि पुव्वं व अणंतभागवडिहाणाणं कंडयं गंतूण संखेज्जभागवडिहाणं होदि । एदस्स हाणंतरमणंतभागवडिहाणंतरेहितो अणंतगुणं हेहिमअसंग्वेज्जभागवडिहाणंतरेहितो असंखेज्जगुणं। संखेजभागवडिहाणपक्खेवफद्दयसलागाओ हेडिमअणंतभागवडि-असंखे०भागवडिहाणाणं पक्खेवफद्दयसलागाहिंतो संखे०भागब्भहियाओ। जहा हाणंतराणि तहा फद्दयंतराणि वि वत्तवाणि । एवं कंडयभहियकंडयवग्गमेत्ताणि अणंतभागवडिहाणाणि कंडयमेत्तअसंखेजभागवडिडाणाणि च उवरिं गंतूण विदियं संखेज्जभागवडिहाणं होदि । एवमेदेण कमेण कंडयमेत्ताणि संखेजभागवडिहाणाणि उप्पाएदव्वाणि । ततो उवरि एगं भागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार यह क्रम काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि स्थानोंमें अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। अर्थात उत्पन्न हुए अनन्तभागवृद्धिस्थानके जीवराशिप्रमाण खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डको लेकर उसे उसी स्थानमें जोड़ देनेसे आगेका स्थान उत्पन्न होता है आदि । यहाँ पर भी नीचे के स्थानसे ऊपरके स्थानका अत्तर, नीचेके स्पर्धकसे ऊपरके स्पर्धकका अन्तर और उसकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंकी संख्याका कथन जैसा प्रथम अनन्तभागवृद्धिस्थान काण्डकमें किया है वैसा ही करना चाहिये, दोनोंके कथनमें कोई अन्तर नहीं है। ६१४. पुन: काण्डकके अन्तिम अनन्तभागवृद्धि स्थानके असंख्यात लोक प्रमाण खण्ड करके उनमेंसे एक खण्ड लेकर उसे उसी स्थानमें जोड़ देनेपर दूसरा असंख्यातभागवृद्धि स्थान उत्पन्न होता है। यहाँ पर भी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंके प्रमाणका तथा नीचेके स्थानसे इस स्थानके अन्तर और नीचे के स्पर्धकसे इस स्थानके स्पर्धकके अन्तरके प्रमाणका कथन पहलेकी तरह कर लेना चाहिये। इस प्रकार इस क्रमको काण्डकप्रमाण असंख्यातभाग वृद्धिस्थानोंके अन्तिम असंख्यातभागवृद्धि स्थान पर्यन्त ले जाना चाहिये । अन्तिम असंख्यातभागवृद्धि स्थानके ऊपर पहलेकी तरह काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि स्थानोंके होनेपर संख्यातभागवृद्धि स्थान होता है। इस स्थानका अन्तर अनन्तभागवृद्धि स्थानके अन्तरसे अनन्तगुणा है तथा नीचेके असंख्यातभागवृद्धि स्थानके अन्तरसे असंख्यातगुणा है । संख्यातभागवृद्धि स्थानकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ नीचेके अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंसे संख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं । जैसे स्थानोंके अन्तरका कथन किया है वैसे ही स्पर्धकोंका अन्तर भी कहना चाहिये। इस प्रकार एक काण्डक और काण्डकके वर्गप्रमाण अनन्तभागवृद्धि स्थान तथा काण्डकप्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थानोंके होनेपर दूसरा संख्यातभागवृद्धि स्थान होता है। इस प्रकार इस क्रमसे काण्डकप्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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