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________________ कहे हैं वे ही यहाँपर कहने चाहिए । इस प्रकार यह सामान्यसे विचार किया है। गति श्रादि मार्गणाओं में अपनी अपनी विशेषता व स्वामित्वको जानकर भङ्ग ले आना चाहिए। भाग-मोह सामान्यका उत्कृष्ट अनभाग संज्ञी पञ्चन्द्रिय जीव करते हैं, इसलिए इनके और ये इस अनुभागके साथ अन्य एकेन्द्रियादिमें जाते हैं उनके मात्र उस्कृष्ट अनुभाग सम्भव है, अतः मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवाले सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण होते हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागवाले सब जीवोंके अनन्त बहभाग प्रमाण होते हैं। मोहनीयकी छब्बीस उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका यही भागाभाग जानना चाहिए, क्योंकि स्वामित्वकी अपेक्षा मोहनीय सामान्यसे यहाँ कोई भेद नहीं है । मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले कुल जीव ही असंख्यात होते हैं, इसलिए इनमें उत्कृष्ट अनुभागवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण होते हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागवाले असंख्यात एक भागप्रमाण होते हैं यह भागाभाग वटित होता है। कारण इनका अनुत्कृष्ट अनुभाग क्षपणाके समय ही सम्भव है, इसलिए वे संख्यात ही होते हैं। शेष असंख्यात जीव उत्कृष्ट अनुभागवाले होते हैं । जघन्य अनुभागकी अपेक्षा मोहनीयके जघन्य अनुभागवाले जीव अनन्तवें भागप्रमाण होते हैं, क्योंकि मोहनीयका जघन्य अनुभाग क्षपकणिमें प्राप्त होता है। और अजघन्य अनुभागवाले अनन्त बहुभागप्रमाण होते हैं। उत्तर प्रकृतियोंका विचार करने पर अनन्तानुबन्धीचतुष्क, चार संज्वलन और नौ नोकषायोंका भागाभाग इसी प्रकार जानना चाहिए। तथा शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा जघन्य अनुभागवाले असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं और अजघन्य अनुभागवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण होते हैं । कारणका ज्ञान स्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए । मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार स्वामित्वको देखकर भागाभाग ले आना चाहिए। परिमाण-मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीव असंख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अभुभागवाले जीव अनन्त हैं। छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा यही परिमाण जानना चाहिए। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीव असंख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागवाले जीव संख्यात हैं । जघन्यको अपेक्षा मोहनीयके जघन्य अनुभागवाले जीव संख्यात हैं और अजघन्य अनुभागवाले जीव अनन्त हैं। चार संज्वलन और नौ नोकषायों की अपेक्षा इसी प्रकार परिमाण जानना चाहिए। मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी अपेक्षा जघन्य और अजघन्य अनुभागवाले दोनों प्रकारके जीव अनन्त हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा जघन्य अनुभागवाले जीव संख्यात हैं और अजघन्य अनुभागवाले जीव असंख्यात हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा जघन्य अनुभागवाले जीव असंख्यात हैं और अजघन्य अनुभागवाले जीव अनन्त हैं। कारणका ज्ञान स्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए। तथा भागाभागमें भी हम कारणका उल्लेख कर आये हैं, इसलिए वहाँसे जान लेना चाहिए । मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषताको जानकर परिमाण ले आना चाहिए। त्र-मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि ये स्वल्प होते हैं, अतः इनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाणसे अधिक नहीं हो सकता और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका सर्व लोक क्षेत्र है। कारण स्पष्ट है। उत्तर छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा इनका इसी प्रकार क्षेत्र घटित कर लेना चाहिए । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागदालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि इनकी सत्ता जो सम्यक्त्वको प्राप्त कर मिथ्यादृष्टि हो गये हैं, जो वर्तमानमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होनेके पूर्व सम्यक्त्वको प्राप्त कर रहे हैं या जो उपशम तथा वेदकसम्यक्त्व सहित हैं उनके ही होती है। उसमें भी जिन्हें मिथ्यादृष्टि हुए पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक काल नहीं हुआ है उनके ही उनकी सत्ता होती है। मोहनीयकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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