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________________ ९८ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ अणुभागवित्त ४ भागो । अप्पदर० ज० अंतोमु०, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि तो मुहुत्तेण सादिरेयाणि । अवडि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं पंचिदियतिरिक्खतियस्स । वरि मोह • भुज० ज० एगसमओ, उक्क० पुव्वको डिपुधत्तं । पंचिदियतिरिक्ख अपज्ज • ० भुज ० - अवद्वि० ज० एस ०, अप्पदर० ज० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिमंतोमुहुत्तं । एवं मणुस अपज्ज० । मणुसतियस्स पंचिंदिय० तिरिक्खभंगो । णवरि भुज० उक्क० goaकोटी देणां । $ १५०. देवेषु मोह० भुज० अंतर केव० १ ज० एस ०, उक्क० अहारससोगरो० सादिरेयाणि । अप्पदर० ज० अंतोमु०, उक्क० एकतीसं सागरो० देणाणि । अवडि० ज० एस ०, उक्क० अंतोमु० । एवं भवणादि जाव सहस्सारो त्ति । णवरि भुज० - अप्प ० उक्क० सगहिदी देसूणा । श्राणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति अप्पदर० ज० तोमु०, उक्क० सगहिदी देणा । अवद्वि० जहण्णुक्क० एस० । अणुद्दिसादि जाव सव्वसिद्धि ति अप्पदर० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अवद्वि० जहण्णुक्क० एगसमओ । एवं जाव अणोहारि ति चिंतिय दव्वं । एवमं तराणुगमो समत्तो । उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यावें भाग है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पञ्च ेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त और पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मोहनीयकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्तकों में भुजगार और अवस्थितविभक्तिका ! जघन्य अन्तर एक समय है, अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सब विभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर अन्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए । सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । $ १५०. देवों में मोहनीयकर्मकी भुजगारविभक्तिका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अट्ठारह सागर है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य तर मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इस प्रकार भवनवासी से लेकर सहस्रार स्वगपर्यन्त जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें भुजगार और अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। आनत स्वर्गसे लेकर नवग्रैवेयक तक के देवोंमें अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणापर्यन्त विचार करके इस अन्तरको ले जाना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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