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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए भुजगारे णाणाजीवेहि भंगविचओ $ १५१. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । तत्थ ओघेण मोह. भुज०-अप्पदर०-अवहि० णियमा अस्थि । एवं तिरिक्खोघं । विशेषार्थ-आदेशसे सभी मार्गणाओंमें भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, जैसा कि ओघसे बतलाया है। विशेषता केवल भुजगार और अल्पतरविभक्तिके उत्कृष्ट अन्तरकालमें है, जो कि इस प्रकार है-सामान्य नारकियोंमें दोनों विभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि सातवें नरकका एक मिथ्यादृष्टि नारकी भुजगारविभक्तिको करके पुनः अल्पतरविभक्ति करके सम्यग्दृष्टि हुआ और थोड़ी आयु शेष रहने पर सम्यक्त्वसे च्युत होकर पुन: मिथ्यादृष्टि हो गया और वहाँ उसने भुजगारविभक्ति की तो उसका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर होता है। इसी प्रकार अल्पतरविभक्तिका भी लगा लेना चाहिये। प्रत्येक नरकमें इसी प्रकार कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है। तिर्यञ्चोंमें भजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है, क्योंकि पञ्चन्द्रियोंमें भजगारको करके पुनः एकेन्द्रियोंमें जन्म लेकर पल्यके असंख्यातवें भाग काल तक भुजगारके विना अनुभागसत्कर्मको करके पुन: भुजगार करने पर भुजगारविभक्ति का अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भाग होता है और अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है, क्योंकि कोई तिर्यश्च अल्पतर करके भोगभूमिमें उत्पन्न हो गया और तीन पल्यकी आयुके अन्तमें काण्डकघात किया तो यह अन्तरकाल प्राप्त होता है। पञ्चन्द्रिय तियञ्च, पञ्चन्द्रियपर्याप्त और पञ्चन्द्रियतियंञ्चयोनिमतियोंमें भुजगारका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व है, क्योंकि इनमेंसे कोई तिर्यञ्च संज्ञी दशामें भुजगारको करके मरकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च हो गया और वहाँ पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक समान अनुभाग सत्कर्मको करके मरकर पुनः संज्ञी पञ्चन्द्रिय हुआ और वहाँ उसने भुजगारविभक्ति की तो उतना अन्तरकाल होता है। तीन प्रकारके मनुष्योंमें भुजगारका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि है, क्योंकि किसी मनुष्य ने आठ वर्षकी अवस्थामें भुजगारको करके पश्चात् सम्यक्त्वको प्राप्त किया और मृत्युसे कुछ काल पहले सम्यक्त्वसे च्युत होकर पुनः भुजगारविभक्तिको किया तो भुजगारका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटि होता है। यहाँ शेष कथन पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। देवोंमें भुजगारका उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अट्ठारह सागर है, क्योंकि कोई संज्ञी मिथ्यादृष्टि तिर्यञ्च या मनुष्य शतार सहस्रारमें जन्म लेकर भुजगारको करके पश्चात् सम्यग्दृष्टि हो गया, मरनेके पहले सम्यक्त्वसे च्युत होकर उसने पुनः भुजगारविभक्ति की तो भुजगारका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अट्ठारह सागर होता है, इससे अधिक इसलिये नहीं हो सकता कि अच्युतादिकमें भुजगार नहीं होता। तथा अल्पतरका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर उपरिम प्रैवेयककी अपेक्षासे जानना चाहिए। प्रैवेयकसे ऊपरके देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, अत: उनमें अल्पतरका अन्तर अन्तर्मुहुर्तसे अधिक नहीं होता, क्योंकि एक अनुभागकाडककी अन्तिम फालिके पतनके समय अल्पतरविभक्ति होती है। उसके बाद दूसरे अनुभागकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होने में एक अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६ १५१. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय अनुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । उनमेंसे ओघसे मोहनीय कर्मकी भुजाकार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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