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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडें [ अणुभागविहत्ती ४ असंखे०भागो अह-तेरहचोद्दस ० देणा । वेडव्वियमिस्स ० उक्कस्साणुक्कस्साणु० के० खे० पो० लोग० असंखे ० भागो । एवमाहार० - आहारमिस्स ० - अवगद ० - अकसा०मणपज्ज०-संजद ०-सामाइय-छेदो ० - परिहार - सुहुमसांपराय ० - जहाक्खाद ० संजदे त्ति | n . ७० १०६. विहंगणाणि० उकस्साणुकस्साणुभाग ० के ० खे० पो०१ लोग० असंखे ० भागो अट्ठचोदस० सव्वलोगो वा । आभिणि० सुद० - ओहि० उक्क० अणुक्क० के० खे० कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके श्रसंख्यातवें भागका और चौदह भागोंमें से कुछ कम तेरह और कुछ कम आठ भागका स्पर्शन किया है । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले वैक्रियिकमिश्रकाय योगियोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाय योगी, अपगतवेदी, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थानासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातसंयतोंमें जानना चाहिए । 1 I विशेषार्थ - मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजु है और ऐसे जीव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं, अतः इस अपेक्षासे सब लोकप्रमाण स्पर्शन सम्भव है, इसलिए योगकी अपेक्षा सामान्य काययोगियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है । इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन है यह स्पष्ट ही है । औदारिककाययोगियों में इसी प्रकार स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। मात्र कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन देवोंके विहारवत्स्वस्थान आदिकी मुख्यतासे कहा है पर देवोंके औदारिककाययोग नहीं होता, इसलिए औदारिककाययोगवालों में इस स्पर्शनका निषेध किया है । उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले औदारिक मिश्रकाययोगियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिये इनमें यह उक्त प्रमाण कहा है । तथा औदारिकमिश्रकाययोगका स्पर्शन सर्वलोक है, इसलिए इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है । कार्मरणकाययोगी आदि मूलमें गिनाई गई अन्य मार्गणावाले जीवों में औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान ही स्पर्शन प्राप्त होता है, इसलिए इनमें दारिक मिश्रकाययोगी जीवोंके समान स्पर्शन कहा है। वैक्रियिककाययोगियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम तेरह बटे चौदह राजुप्रमाण है । इनके इन सब स्पर्शनोंके समय उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सम्भव है, इसलिए इनमें दोनों विभक्तिवालोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका सब प्रकारका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है, इसलिए इनमें दोनों विभक्तिवालों का स्पर्शन उक्त प्रमारण कहा है। आगे मूलमें जो आहारककाययोगी आदि मार्गणाऐं गिनाई हैं उनका स्पर्शन भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः उनका कथन वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों के समान जानने की सूचना की है । $ १०९. उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले विभंगज्ञानियोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका, चौदह भागोंमे से कुछ कम आठ भागका और सव लोकका स्पर्शन किया है । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले श्रभिनिबोधिकज्ञानी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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