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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए पोसणं काइय-सव्वणिगोदाणमेइंदियभंगी । बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्ताणं बादरपुढविकाइयभंगो। १०८. जोगाणु० कायजोगि० उक्क० लोग० असंखे०भागो अहचोदस० सव्वलोगो वा । अणुक्क० सव्वलोगो। एवमोरालियकायजोगिणवरि अहचोदसभागाणत्थि। ओरालियमिस्स० उकस्साणु० के० खे. पो० १ लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। अणुक्कस्साणु० सव्वलोगो । एवं कम्मइय०-णवूस-चत्तारिकसाय--मदि-सुदअण्णाण०असंजद०-अचक्खु०-किएह-णील-काउ०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादिहि--असरिण० आहारि-अणाहारि त्ति । वेउव्विय० उकस्साणुक्कस्साणु० के० खे० पो० ? लोग० स्पर्शन किया है। सब वनस्पतिकायिक और सब निगोदियोंमे एकेन्द्रियके समान भंग है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्तोंमें बादर पृथिवीकायिकके समान भंग है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धकोंका जिस प्रकार स्पर्शन घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिकोंमें तथा इन चारोंके सूक्ष्मोंमें और सूक्ष्मोंके पर्याप्त और अपर्याप्तकोंमें घटित कर लेना चाहिये। उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिसे युक्त बादर पृथिवीकायिक और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन नीचे कुछ कम छह और ऊपर कुछ कम सात राजु कुल कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु सम्भव होनेसे यह उक्तप्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालों का स्पर्शन लोकके असंख्ातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है। यहाँ तक जो स्पर्शन घटित करके बतलाया है उसे ध्यानमें लेकर स्थावरकायिक जीवोंके शेष भेदोंमें भी स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। मात्र बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवोंका स्पर्शन दो प्रकारसे बतलाया है। प्रथम तो उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन बतलाया है। सो यह स्पर्शन बतलाते समय बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीव सब पृथिवियोंमें उपलब्ध होते हैं यह दृष्टि मुख्य नहीं है तथा दूसरी अपेक्षासे जो कुछ कम तेरह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन कहा है सो ऐसा कहते समय उन आचार्योका अभिप्राय मुख्य रहा है जो यह मानते हैं कि बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीव सब पृथिवियोंमें उपलब्ध होते हैं । शेष कथन सुगम है । ६१०८. योगकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले काययोगियोंने लोकके असंख्यातवें भागका, चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागका और सर्वलोकका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने सर्व लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार औदारिककाययोगियोंमे जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि उनमें चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण स्पर्शन नहीं है । उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले औदारिकमिश्रकाययोगियोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और सर्व लोकका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभिक्तिवालोंने सर्व लोकका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी. मायावी, लोभी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारकोंमे जानना चाहिए । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले वैक्रियिककाययोगियोंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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