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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती४ ही जिनकी प्राप्ति होती है तथा पूर्व स्पर्धकोंसे जिनमें अनन्तगुणा हीन अनुभाग पाया जाता है उन्हें अपूर्व स्पर्धक कहते हैं। अश्वकर्णकरण कालके समाप्त होनेके अनन्तर समयसे ही कृष्टिकरण काल प्रारम्भ हो जाता है। कृष्टिकरणके प्रथम समयसे ही क्रोधकषायके पूर्व स्पर्धक और अपूर्व स्पर्धकोंमेंसे असंख्यातवें भाग प्रदेशों का अपकर्षण करके क्रोधकी कृष्टियां करता है। वे कृष्टियां अपूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे अनन्तवें भाग हीन होती हैं। तथा एक एक कषायकी तीन तीन कृष्टियां होनेसे चारों कषायों की बारह संग्रहकृष्टियां होती हैं। जिस समय यह जीव कृष्टियोंको करता है उस समय पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धकोंका तो वेदन करता है किन्तु कृष्टियोंका वेदन नहीं करता है। कृष्टिकरणकालके अन्तिम समयमें वेद्यमान उदयस्थिति को छोड़कर उससे ऊपर क्रोध संज्वलनकी प्रथम स्थिति श्रावलिप्रमाण शेष रहने पर कृष्टिकरणकाल क्रमसे समाप्त हो जाता है। पीछे कृष्टियोंका वेदनकाल प्रारम्भ होता है । कृष्टिवेदनके प्रथम समयमें अनन्तगुणी विशुद्धिसे बढ़ता हुआ कृष्टिवेदक जीव बारहों संग्रह कृष्टियों में से उत्कृष्ट कृष्टिसे लेकर एक एक संग्रह कृष्टिके असंख्यातवें भाग अनन्त कृष्टियोंको अपवर्तन घातके द्वारा एक समय में नष्ट कर देता है, अर्थात् ऊपर की कृष्टियों का अपवर्तन घात करके उन्हें नीचे की कृष्टिरूपसे परिणत कर देता है। और इस प्रकार पहले की गई कृष्टियों के नीचे और उनके अन्तरालमें अन्य अपूर्व कृष्टियां करता है। ये कृष्टियां मान, माया और लोभकी प्रथम तीन संग्रहकृष्टियोंमें तो बंधनेवाले और संक्रमित होकर आनेवाले प्रदेशोंसे बनती हैं और क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टिमें बध्यमान प्रदेशोंसे ही बनती हैं, क्योंकि उसमें सक्रमित होकर आनेवाले प्रदेशों का अभाव है। तथा शेष संग्रहकृष्टियोंमें संक्रमित होकर आनेवाले प्रदेशोसे ही बनती हैं। इस प्रकार कृष्टियोंका वेदन करते हुए क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिने दो समय कम दो आवली मात्र नवक समयप्रबद्ध और उच्छिष्टावली छोड़कर शेष द्रव्य दूसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमित हो जाता है। बादको नवकबन्ध तथा उच्छिष्टावलीका द्रव्य भी यथाक्रम दूसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमित हो जाता है। जिस विधिसे क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदन करता है उसी विधिसे दूसरी और तीसरी संग्रहकृष्टिका वेदन करता है। तीसरी कृष्टिके वेदनकालके अन्तिम समयमें जो अनुभागसत्कर्म बद्ध होता है, समय कम दो आवली मात्र कालके पश्चात् उसे अन्तिम अनुभाग फालीमें जब डाल देता है तो वह क्षपक अन्तिम समयवर्ती संक्रामक कहलाता है, क्योंकि उसके पश्चात् क्रोधका अन्त हो जाता है, उसके क्रोध संज्वलनका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। यहाँ जो क्रोध कषायके उदयसे श्रेणि पर चढ़ता है उसीका ग्रहण किया है, जो अन्य कषायके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ता है उसका ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि अन्य कषायके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला जीव उसी स्थानमें चरिम समयवर्ती संक्रामक नहीं होता जिस स्थानमें स्वोदयसे चढ़नेवाला जीव चरिम समयवर्ती संक्रामक होता है, क्योंकि क्रोधकषायके उदयसे चढ़नेवाला जीव जिस स्थानमें अश्वकणकरण करता है मानकषायके उदयसे चढ़नेवाला जीव उस स्थानमें क्रोधका क्षपण करता है । क्रोधके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवालेका जो कृष्टिकरणकाल है मानकषाय के उदयसे चढ़नेवालेका वह अश्वकर्णकरणकाल है। क्रोधसे चढ़नेवालेका जो क्रोधका क्षपणकाल है, मानके उदयसे चढ़नेवालेका वह कृष्टिकरण काल है। इसी प्रकार क्रोधसे चढ़नेवाला जहाँ अश्वकर्णकरण करता है मायाके उदयसे चढ़नेवाला वहाँ क्रोधका क्षपण करता है । क्रोधसे चढ़ने वाला जहाँ कृष्टियां करता है मायासे चढ़नेवाला वहाँ मानका क्षपण करता है । अत: अन्य कषाय के उदयसे श्रेणिपर चढ़नेवाला चरिमसमयवर्ती संक्रामक आगे आगे होता है। तथा अन्य कषायके उदयसे श्रेणिपर चढ़नेवाले के क्रोधका स्पर्धकरूपसे ही विनाश होता है कृष्टिरूपसे विनाश नहीं होता, अत: अन्य कषायके उदयसे श्रेणिपर चढ़नेवालेके क्रोधका जघन्य अनुभागसत्कम नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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