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________________ arrwwwwwwwwww गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए सामित्तं १६९ असंकामयस्से ति सुत्तादो सोदएण जहएणं होदि त्ति अवगमुप्पसीदो। तं जहासो चरिमसमओ असंकामओ णाम जो सोदएण खवगसेढिं चडिदो, तत्तो उवरि संकामयाणमभावादो। परोदएण चडिदो पुण ण चरिमसमयसंकाममओ, तत्तो उवरिं पि संकामयाणमुवलंभादो। सोदय-परोदयकयभेदविवक्खाए विणा संकामयसामण्णमेव एत्थ विवक्खियमिदि कत्तो णव्वदे ? अण्णहा जहण्णताणुववत्तीदो। दुचरिमसमयसंकामियम्मि जहएणसामित्तं किण्ण दिजदि ? ण, चरिमसमयबंधाणुभागादो दुचरिमसमयबंधाणुभागस्स अणंतगुणस्स तत्थुवलंभादो। समयं पडि अणंतरहेहिमहेहिमअणुभागबंधाणमणंतगुणत्तं कुदो णव्वदे १ वट्टमाणबंधादो अणंतगुणवट्टमाणुदयं पेक्खिदूण अणंतरहेहिमबंधस्स अणंतगुणत्तादो । उदयाणमणंतगुणहीणतं कत्तो णव्वदे? समयं पडि विसोहीए अणंतगुणत्तएणहाणुववत्तीदो। सूत्रसे ही यह ज्ञात हो जाता है कि स्वोदयसे श्रेणि चढ़नेवालेके जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। खुलासा इस प्रकार है-जो स्वोदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है वह चरमसमयवर्ती असंक्रामक कहलाता है, क्योंकि उससे आगे संक्रमण करनेवालोंका अभाव है। किन्तु जो परोदयसे श्रेणि पर चढ़ा है वह चरम समयवर्ती संक्रामक नहीं है, क्योंकि उसके ऊपर भी संक्रमण करनेवाले पाये जाते हैं। शंका-स्वोदय और परोदयकृत भेदकी विवक्षाके विना यहाँ संक्रामक सामान्य की ही विवक्षा है यह कैसे जाना ? समाधान-यदि ऐसा न होता तो उसके जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं बन सकता था। शंका-चरम समयसे पूर्व समयवर्ती संक्रामकको जघन्य अनुभागका स्वामी क्यों नहीं कहा? समाधान नहीं, क्योंकि चरम समयमें होनेवाले अनुभागबन्धसे द्विचरम समयमे होनेवाला अनुभागबन्ध वहाँ अनन्तगुणा पाया जाता है। शंका-चरम समयसे लगातार पूर्व पूर्व प्रतिसमय होनेवाला अनुभागबन्ध अनन्तगुणा होता है यह कैसे जाना ? समाधान-वर्तमान बन्धसे वर्तमान उदयको अनन्तगुणा देखकर अनन्तर पूर्व समयवर्ती बन्ध अनन्तगुणा होता है, यह जाना। शंका-प्रति समय उदय अनन्तगुणा हीन होता है यह कैसे जाना ? समाधान-यदि उदय अनन्तगुणा हीन न होता तो प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि नहीं होती, इससे जाना कि प्रति समय उदय अनन्तगुणा हीन होता है। विशेषार्थ जो जीव क्रोध कषायके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ा वह अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें नोकषायोंका क्षपण करके और अपगतवेदी होकर संज्वलन क्रोधका क्षपण करने के लिये सबसे प्रथम अश्वकर्ण नामका करण करता है। अर्थात् जैसे अश्व अर्थात् घोड़ेका कर्ण-कान मूलसे लेकर क्रमसे घटता हुआ देखा जाता है, उसी प्रकार यह करण भी क्रोध संज्वलनसे लेकर लोभसंज्वलन पर्यन्त अनुभागस्पर्धकों को क्रमसे अनन्तगुणा हीन करनेमें कारण है, इसलिये उसे अश्वकर्णकरण कहते हैं। इस करण के प्रथम समयसे ही अपूर्व स्पर्धकोंका होना प्रारम्भ हो जाता है। जो अनुभागस्पर्धक पहले कभी प्राप्त नहीं हुए, क्षपकश्रेणिमें अश्वकर्णकरण काल के द्वारा २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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