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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए सामित्तं १७१ * एवं माण-मायासंजलणाणं । $ २५०. जहा कोहसंजलणस्स चरिमसमयअसंकामयम्मि जहएणसामित्तं वुत्तं तहा माण-मायासंजलणाणं पि वत्तव्वं । गवरि सोदएण हेडिमकसाओदएण च खवगसेटिं चढिदस्स जहएणसामित्तं वत्तव्वं । * लोभसंजलणस्स जहणणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? २५१. सुगमं । छ खवगस्स चरिमसमयसकसायिस्स ? ६ २५२. कुदो ? बादरकिट्टीहितो अणंतगुणहीणसुहुमकिट्टीए अणुसमयओवट्टणाए अंतोमुहुत्तमेत्तकालमणंतगुणहीणाए सेढीए पत्ताणंतभागघादाएं' मुहुमसांपराइयचरिमसमए वट्टमाणाए मुटु थोवत्तादो । ___ * इसी प्रकार संज्वलनमान और संज्वलनमायाके जघन्य स्वामित्वका कथन कर लेना चाहिये। २५०. जैसे संज्वलन क्रोधके जघन्य अनुभागका स्वामी अन्तिम समयवर्ती असंक्रामक को बतलाया है, वैसे ही संज्वलन मान और संज्वलन मायाका भी कहना चाहिये। इतना विशेष है कि स्वोदयसे और पूर्व की कषायके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़नेवाले जीवके जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये। विशेषार्थ-जैसे संज्वलन क्रोधका जघन्य अनुभागसत्कर्म स्वोदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ने वाले चरिम समयवर्ती संक्रामकके बतलाया है वैसे ही मान और मायाका भी समझना चाहिए। विशेषता केवल इतनी है कि जो स्वोदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ा है या पूर्वकी क्रोधादि कषायके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ा है, दोनोंके जघन्य अनुभागसत्कम होता है, क्योंकि क्रोध कषायके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला जिस कालमें मान, माया और लोभका क्षपण करता है, मान, माया और लोभके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला भी उसी कालमें मान, माया और लोभका क्षपण करता है, दोनोंमें कालका अन्तर नहीं पड़ता। * संज्वलन लोभका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? ६२५१. यह सूत्रसुगम है। * अन्तिम समयवर्ती सकषाय तपकके होता है। ६२५२. क्योंकि, एक तो सूक्ष्म कृष्टि बादर कृष्टियोंसे अनन्तगुणी हीन होती है दूसरे उसमें प्रति समय अपवर्तनघात होता है और इस प्रकार अन्तमुहूर्त काल तक अनन्तगुणी हीन गुणणिरूपसे उसके अनन्तभाग अनुभागका घात हो जाता है। इस प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें वर्तमान वह सबसे स्तोक है, इसलिये सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें संज्वलन लोभका जघन्य अनुभागसत्कर्म कहा है। विशेषार्थ-जैसे अपूर्व स्पर्धकोंसे नीचे अनन्तगुणा घटता हुआ अनुभाग लिये क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टि होती है वैसे ही बादर कृष्टिसे नीचे अनन्तगुणा घटता हुआ अनुभाग लिये सूक्ष्मकृष्टिकी रचना होती है। लोभ की द्वितीय कृष्टिका वेदन करते हुए जब उसकी प्रथम १. ता० प्रतौ पत्तागंतधादाए इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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