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________________ ३१४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अंतरं । दोण्हमवहि-अवत्तव्व० ओघं । अणंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो। णवरि अणंतगुणवड्डी० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । अवहि० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । अवत्त० ओघ । तिण्हं पंचिदियतिरिक्खाणं वावीसंपयडीणं छवडि-पंचहाणी० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । [अणंत]गुणहाणि०-अवहि० तिरिक्खोघं । सम्मत्त० अणंतगुणहाणी० रइयभंगो। सम्म०-सम्मामि० अवहि०-अवत्त० ज० ओघं, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणंताणु०चउक्क० छवडि-छहाणी० जह० एगस० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । अवहि० तिरिक्खोघं । अवत्त० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । जोणिणी० सम्म० अणंतगुणहाणी णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. छब्बीसपयडीणं छवडि-अवहि० ज० एगस०, छहाणी० ज० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिमंतोमु० । सम्म०सम्मामि० अवहि. णत्थि अंतरं । एवं मणुसअपज्ज। $ ५४३. तिण्हं मणुस्साणं वावीसंपयडीणं पंचवडि-छहाणि-अवहि० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। अणंतगुणवड्डी० ज० एगस०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । अणंताणु० विभक्तिका अन्तर ओघके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतना विशेष है कि अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक तीन पल्य है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अवक्तव्य विभक्तिका अन्तर ओघके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त और पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च योनिनियों में बाईस प्रकृतियों की छ वृद्धियो और पाँच हानियो का जघन्य अन्तर क्रमशः एक समय और अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है । अनन्तगुणहानि और अवस्थित विभक्तिका अन्तर सामान्य तिर्यश्चों के समान है। सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिका भङ्ग नारकियों के समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रक्रतियो की अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर ओघके समान है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी छह वृद्धियों का जघन्य अन्तर एक समय है और छह हानियो का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक तीन पल्य है। अवस्थितका अन्तर सामान्य तियञ्चोंकी तरह है। अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च योनिनियोंमें सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि नहीं होती। पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपयोप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी छह वृद्धियों और अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है, छह हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है तथा सब विभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। ६५४३. तीन प्रकारके मनुष्यो में बाईस प्रकृतियों की पांच वृद्धियो छह हानियो और अवस्थित विभक्तिका अन्तर पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चों के समान है । अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटी है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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