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________________ 4.ne.ru गा० २२] अणुभागविहत्तीए वड्डीए अंतरं ३१५ चउक्क० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। सम्म०-सम्मामि० अवहि०-अवत्त० पंचि०तिरिक्खभंगो। अणंतगुणहाणी० ओघं। ५४४. देवेसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० छवडि-पंचहाणी० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क० अहारस सागरो० सादिरेयाणि । अवहि० ओघं । अणंतगुहाणी. जह० अंतोमु०, उक० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि। अणंताणु० चउक्क० छवडि-अवहि०छहाणि-अवत्त० ज० एगस० अंतोमु ०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त । अणंतगुणहाणी० गत्थि अंतरं । सम्म०-सम्मामि० अवहि-अवत्त० ज० ओघ, उक्क० एकत्तीसं साग० देसूणाणि । भवण०--वाण०--जोदिसि० विदियपुढविभंगो। णवरि सगहिदी। सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति पढमपुढविभंगो। णवरि सगहिदी। आणदादि णवगेवज्जा त्ति वावीसंपयडीणं अणंतगुणहाणी० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अवहि. जहण्णुक्क० एगस० । सम्म०-सम्मामि देवोघं । णवरि सगहिदी देसूणा । अणंताणु चउक्क० छवड्डि-अवहि० जह० एगस०, छहाणि-अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिं सगहिदी देमूणा । अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति छब्बीसंपयडीणमणंतगुणहाणी. जहण्णुक० अंतोमु० । अवहि. जहष्णुक० एगस० । भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका अन्तर पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चो के समान है। तथा अनन्तगुणहानिका अन्तर ओघके समान है। ६५४४. देवों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी छह वृद्धियो और पांच हानियो का जवन्य अन्तर क्रमशः एक समय है और अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अठारह सागर है। अवस्थितका अन्तर ओघके समान है। अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी छह वृद्धियों और अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और छह हानियों तथा अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है । उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर ओघकी तरह है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियों में दूसरी पृथिवीके समान भंग है। इतना बिशेष है कि दूसरी पृथिवीकी स्थितिके स्थानमें अपनी स्थिति लेनी चाहिये। सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान भंग है। इतना विशेष है कि यहाँ अपनी-अपनी स्थिति लेनी चाहिये । आनतसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूत है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इतना विशेष है कि यहाँ कुछ कम अपनी स्थिति लेनी चाहिये। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी छह वृद्धियों और अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है। छ हानियों और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। तथा सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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