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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ 8 बारसकसायाणमणुभागसंतकम्मं सव्वघादीणं दुट्ठाणियमादिफद्दयमादिकादूर्ण उवरिमप्पडिसिद्ध। १६४. वारसकसायाणं ति वुत्ते अणंताणुबंधि--अपञ्चक्खाण-पञ्चकखाणकोह-माण-माया-लोहाणं गहणं । कुदो ? अण्णासिं बारसपयडीणं सव्वघादीणमभावादो। सव्वघादीणं दुहाणियमणुभागमादि कादणे ति भणिदे सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णफद्दयसरिसफद्दयमादि कादणे चि घेत्तव्बं । एदं कुदो णव्वदे ? सव्वघादीण दुढाणियमादिफद्दयं इदि सुतवयणादो। मिच्छत्तस्स जहण्णफद्दयमादि कादूणे चि किण्ण वुच्चदे ?ण, मिच्छत्तजहएणफदयस्स दुहाणियसव्वघादिफदएसु जहण्णचाभावादो। एदमादि कादूण उवरिं अप्पडिसिद्धमिदि वुचे दारुअसमाणफद्दयाणमणते भागे अहिसेलसमाणफदयाणि च संपुण्णाणि गंतूण बारसकसायाणमणुभागसंतकम्ममवहिदं ति घेत्तव्वं । * चदुसंजलण--णवणोकसायाणमणुभागसंतकम्मं देसघादीणमादिफद्दयमादि कादूण उवरि सब्वघादि त्ति अप्पडिसिद्ध । * वारह कषायोंका अनुभागसत्कर्म सर्वघातियोंके विस्थानिक प्रथम स्पर्धकसे लेकर आगे बिना प्रतिषेधके होता है। ६ १९४. बारह कषाय ऐसा कहने पर अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान और क्रोध, मान, माया लोभका ग्रहण होता है, क्योंकि अन्य कोई बारह प्रकृतियाँ सवघाती नहीं है । सर्वघातियोंके द्विस्थानिक स्पर्धकसे लेकर ऐसा कहने पर उससे सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्पर्धकके समान स्पर्धकसे लेकर ऐसा लेना चाहिये। शंका-यह कैसे जाना जाता है कि उक्त वाक्यसे ऐसा आशय लेना चाहिये। समाधान-सर्वघातियोंके द्विस्थानिक स्पर्धकसे लेकर ऐसा जो सूत्रका वचन है उससे जाना जाता है कि उसका ऐसा आशय लेना चाहिये। शंका-उसका मिथ्यात्वके जघन्य स्पर्धकके समान स्पर्धकसे लेकर ऐसा अर्थ क्यों नहीं कहते हो ? - समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वका जघन्य स्पर्धक द्विस्थानिक सर्वघाती स्पर्धकोंमें जघन्य नहीं है। - इस स्पर्धक से लेकर आगे विना प्रतिषेधके होता है, ऐसा कहने पर दारुरूप स्पर्धकों के अनन्त बहुभाग तथा सम्पूर्ण अस्थिरूप और शैलरूप स्पर्धकों के अन्त तक सब स्पर्धक मिलकर बारह कषायोंका अनुभागसत्वकर्म अवस्थित है, ऐसा अर्थ लेना चाहिये। विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन बारह कषायोंके सब स्पर्धक सर्वघाती हैं। तथा दारुके जिस भागसे सर्वघाती स्पर्धक प्रारम्भ होते हैं उस भागसे लेकर शैल पर्यन्त उनक स्पर्धक होते हैं। * चार संज्वलनो और नव नोकषायोंका अनुभागसत्वकर्म देशघातियोंके प्रथम १. श्रा० प्रतौ 'संतकम्मघादीणं दुट्टाणियमादिफद्दय कादण' इति पाठः । १. प्रा० प्रतौ-माकिफहयसरिसफयमादि इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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