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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए सामित्तं २४७, सुहुमेईदिए जहरण सामित्तं किण्ण दिएां ? ण, पढमसमयसंजुत्तस्स पचग्गाणुभागबंधं पेक्खिद्रा सुहुमणिगोद जहरणाणुभागसंतकम्मस्स अनंतगुणत्तादो । पढमसमयसंजुत्तस्स पञ्चग्गाणुभागम्मि सेसकसायाणुभागफद्दएस संकंतरसु अनंताणुबंधी मणुभागो सुहुमेइंदियजहणणारण भागसंतकम्मादो अनंतगुणो किरण होदि १ ण, 'बंधे संकमदि ' त्ति बज्झमाणाणुभाग सरूवेण संकामिज्जमाणाणुभागस्स परिणामिज्जमाणत्तादो । संजुत्तविदियसमए जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदि १ ण, पढमसमए बद्धाणुभागादो विदियसमए अनंतगुणसंकिलेसेण बज्झमाणाणुभागस्स अनंतगुणत्तादो । २४७. शंका- सूक्ष्म के न्द्रयों में जघन्य अनुभागका स्वामीपना क्यों नहीं बतलाया ? समाधान- नहीं, क्योंकि प्रथम समय में अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त हुए जीवके जो नवीन अनुभागबन्ध होता है उसे देखते हुए सूक्ष्म निगोदिया जीवका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्त गुण है। १६७ शंका--प्रथम समय में अनन्तानुबन्धी से संयुक्त हुए जीवके नवीन अनुभाग में शेष कषायों के अनुभाग स्पर्धकों का संक्रमण होने पर अनन्तानुबन्धीका अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रिय के जघन्य अनुभाग सत्कर्मसे अनन्तगुणा क्यों नहीं होता ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, 'बन्ध अवस्थामें ही संक्रमण होता है' इस नियम के अनुसार जिस अनुभागका संक्रमण होता है वह बध्यमान अनुभागरूपसे ही परिरणमा दिया जाता है, इसलिए उस समय अनन्तानुबन्धीका अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रियके जघन्य अनुभाग सत्कर्म से अनन्तगुणा नहीं हो सकता । शंका- अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होनेके दूसरे समय में अनन्तानुबन्धीके जघन्य अनुभाग का स्वामीपना क्यों नहीं बतलाया ? समाधान- नहीं, क्योंकि प्रथम समयमें बँधनेवाले अनुभागसे दूसरे समय में अनन्तगुणे संक्लेशसे बँवनेत्राला अनुभाग अनन्तगुणा होता है । विशेषार्थ - अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करनेके पश्चात् जो जीव मिध्यात्वको प्राप्त होता है उसके यद्यपि पहले समय से ही अनन्तानुबन्धीका बन्ध होने लगता है तथा अन्य कषायों के सत्त्वमें स्थित निषेक भी अनन्तानुबन्धीरूप से संक्रमित होने लगते हैं, फिर भी उसके प्रथम समय में अनन्तानुबन्धीका जो अनुभागसत्कर्म होता है वह सबसे जघन्य होता है । मूलमें एकेन्द्रिय को लेकर जो शंका समाधान किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि यद्यपि यह अनुभागबन्धका प्रकरण नहीं है किन्तु अनुभागकी सत्ताका प्रकरण है, फिरभी यहाँ जघन्य अनुभागसत्कर्मके स्वामित्व को बतल ते हुये संयुक्त जीवके प्रथम समय में अनन्तानुबन्धीका जो नवीन अनुभागबन्ध होता है उसीकी मुख्यता है जो अन्य कषायोंके परमाणु अनन्तानुबन्धीरूप परिणमन करते हैं उनकी मुख्यता नहीं ली गई है, क्योंकि जब यह शंका की गई कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवको अनन्तानुबन्धीके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी क्यों नहीं कहा तो उसका समाधान किया गया कि संयुक्त जीवके प्रथम समयमें जो नवीन अनुभागबन्ध होता है उसको देखते हुए सूक्ष्म निगोदियाका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है । तब पुनः यह शंका की गई कि संयुक्त जीवके जो नवीन अनुभागबन्ध पहले समय में होता है उसमें शेष कषायोंके अनुभागस्पर्धक भी तो संक्र मित होते हैं, अतः नवीन अनुभाग और संक्रमित अनुभाग मिलकर एकेन्द्रियके अनुभाग से अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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