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________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwranwwwwwwwwwwwwwwww vvvvvvvv. ३९४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ६४३. संपहि तदियवारहदहदसमुप्पत्तियहाणाणं परूवणं कस्सामो । बंधसमुप्पत्तियचरिमअकुव्वंकाणं विच्चाले संहिदरूवणछटाणविक्खंभविसोहिहाणपमाणायदहदसमुप्पत्तियहाणपदरस्स असंखेजलोगमेत्तअहकुव्वंकाणं विच्चालेसु रूवणछट्ठाणविक्खंभेण विसोहिहाणपमाणायमेण अवहिदअसंखेजलोगमेत्तहदहदसमुप्पत्तियहाणपदराणमसंखेजलोगमेत्तअहंकुव्वंकाणं विच्चालेसु रूवृणछहाणविक्खंभविसोहिहाणपमा ओर सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्तकके जघन्य स्थानसे लेकर असंख्यात लोकप्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंकी एक पंक्ति रूपसे रचना करो। फिर सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्तकके जघन्य स्थानसे ऊपरके संख्यात षट्स्थान सम्बन्धी अष्टांक और उर्वकोंको छोड़कर उसके बादके असंख्यात लोकप्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक स्थानसम्बन्धी अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी रचना करो । अब अन्तिम बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी अष्टांक और उर्वकोंके बीचमें असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिक षस्थान सम्बन्धी अन्तिम उर्वकका उत्कृष्ट परिणामसे घात करने पर अष्टांक और उर्वकके बीच में पहला हतहतसमुत्पत्तिक स्थान होता है जो अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन होता है और उसके नीचेके उर्वकसे अनन्तगुणा होता है। पुन: उत्कृष्ट परिणामसे अनन्तगुणे हीन द्विचरम परिणामस्थानके द्वारा उसी अन्तिम उर्वकका घात करने पर दूसरा हतहतसमुत्पत्तिकस्थान होता है। यह स्थान पहले स्थानसे अनन्तवें भाग अधिक अनुभागवाला होता है, क्योंकि पहलेके विशुद्धिस्थानसे अनन्तवें भाग हीन दूसरे विशुद्धिस्थानके द्वारा घाता गया है । इस प्रकार जितनी जितनी हानिसे युक्त परिणाम स्थानके द्वारा अन्तिम वकका घात किया जाता है उतने उतने अधिक अनुभागवाला हहहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार करने पर अन्तिम अष्टांक और उर्वकके बीचमें परिणामस्थानोंकी संख्याके बराबर ही हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं। पुन: उत्कृष्ट परिणामस्थानके द्वारा द्विचरम उवकका घात करने पर दूसरी पंक्तिका पहला हतहतसमुत्पत्तिक स्थान होता है। यह स्थान सबसे जघन्य हतहतसमुत्पत्तिकस्थानसे अनन्तवें भाग हीन होता है । इस प्रकार इस अनुभागस्थानका घात करके परिणामस्थानोंकी संख्याके बराबर हतहतसमुत्पत्तिक स्थान पहले की तरह उत्पन्न कर लेने चाहिये । पुन: उसी उत्कृष्ट परिणामस्थानके द्वारा त्रिचरम उर्वकका घात करने पर दूसरी पंक्तिके जघन्य स्थानसे अनन्तवें भाग हीन तीसरी पंक्तिका पहला स्थान होता है। इस प्रकार इस पंक्तिमें भी परिणामस्थानोंकी संख्याके बराबर ही हतहतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न होते हैं। इस तरह द्विचरम आदि हतसमत्पत्तिक स्थानोंको क्रमसे घात कर परिणामस्थान प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिक स्थान होते हैं। इन स्थानोंका पटल भी षट्स्थान प्रमाण चौड़ा और परिणामस्थान प्रमाण लम्बा होता है। इस प्रकार हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंका कथन किया। ६६२५. अब तीसरी बार हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंका कथन करते हैं। बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी अन्तिम अष्टांक और उर्वकके बीच स्थित, एक कम षट्स्थान प्रमाण चौड़े और विशुद्धिस्थान प्रमाण लम्बे हतसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी प्रतरके असंख्यात लोकप्रमाण अष्टांक और उर्वकोंके बीच में एक कम षट्स्थान प्रमाण चौड़े और विशुद्धिस्थान प्रमाण लम्बे रूपसे स्थित असंख्यातप्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थानरूप प्रतरोंके असंख्यात लोकप्रमाण अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें एक कम षट्स्थान प्रमाण चौड़े और विशुद्धिस्थानप्रमाण लम्बे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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