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________________ गा. २२ ] . अणुभागविहत्तीए कालो अण्णाणि-सुदअण्णाणि-विहंगणाणि-परिहार०-संजदासंजद-असंजद-पंचले०-अभवसि०मिच्छादिहि-असण्णि-अणाहारि ति । १३०. मणुसअपज. जहण्णाजहण्णाणु० ज० एगस० अंतोमुहु, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं वेउव्वियमिस्स० । आहार. मोह० जहण्णाजहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । आहारमिस्स० जहएणाजहएणाण. जह०.अंतोमु०, उक्क० अंतोमु० । अवगद० जहण्णाणुभाग० ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया। अजह० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवमकसा०-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद० । णवरि अकसा०--जहाक्खाद० जह० उक्क० अंतोमु । उवसमसम्मादिहि-सासण. जहण्णाणु० ज० अंतोमु० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अजह० जह० अंतोमु० एगस०, वैक्रियिककाययोगी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत, शुकुके सिवा शेष पाँचों लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-जो हतसमुत्पत्तिककर्मवाले असंज्ञी मर कर नरकमें उत्पन्न होते हैं उनके जघन्य अनुभाग होता है। यह सम्भव है कि इस अनुभागका सद्भाव एक समय तक ही हो और निरन्तर ऐसे जीव उत्पन्न हों और अन्तमुहूर्त तक वही अनुभाग रखें तो वहाँ जघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए नरकमें जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । यहाँ अजघन्य अनुभागवालोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है। प्रथम पृथिवीके नारकी आदि अन्य जितनी मार्गणारे मूल में गिनाई हैं उनमें यह काल अविकल बन जाता है, इसलिए उनको प्ररूपणा सामान्य नारकियां के समान जानने की सूचना की है। द्वितीयादि पृथिवियोंमें अनन्तानुबन्धो की जिन्होंने विसंयोजना करके जघन्य अनुभाग किया है ऐसे जीव और अजघन्य अनुभागवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं, अतः उनमें जघन्य और अजवन्य अनुभागवालोंका काल सर्वदा कहा है। सामान्य तिर्यश्च आदिमें जघन्य और अजघन्य अनुभागवालों का यह काल इसी प्रकार प्राप्त होता है. अत: इनमें द्वितीयादि नरकों के समान जानने की सुचना की है। १३०. मनुष्य अपर्यापोंमें जघन्य अनुभागविभक्ति का जघन्य काल एक समय और अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य कान अन्तर्मुहूर्त है तथा दोनोंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगीमें जानना चाहिए। आहारककाययोगियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल जघ यसे एक समय है और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है। श्राहारकमिश्रकाययोगियोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल जघन्यसे भी अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहू है। अपगत वेदियोंमे जघन्य अनुभागविभक्तिका काल. जघन्यसे एक समय है और उत्कृष्टसे संख्यान समय है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल जघन्यसे एक समय है और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अकषायी, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातसंयतोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अकषायी और यथाख्यातसंयतोंमें जघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें जघन्य अनुभागविभक्तिका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है और सासादनसम्यग्दृष्टयोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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