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________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ ३ १३५. आदेसेण णेरइएस मोह० जहण्णाणुभागंतरं जहरण एगसमत्रो, उक्क • असंखेज्जा लोगा । अज० णत्थि अंतरं । एवं पढमपुढवि - सव्वपंचिंदियतिरिक्खदेव-भवण० वाण० - सव्व विगलिंदिय-पंचिंदिय अपज्ज० - बादर पुढविपज्ज० बादरआउपज्ज०बादरतेउपज्ज०-बादरवा उपज्ज० वादरवणफदिकाइयपत्ते यसरीरपज्ज० - तसपज्जतेति । विदयादि जाव सत्तमि त्ति जहण्णाजहण्णाणुभाग० णत्थि अंतरं । एवं तिरिक्खोघं जोदिसियादि जाव सव्ववसिद्धि-सव्वेई दिय-सव्वपंचकाय वेडव्विय०-१ -ओरालियमिस्स ०कम्मइय०-मदि- सुद अण्णाणि विहंग० असंजद ० - किएह-णील- काउ०-३ ०-अभवसि ०-मिच्छादिडि सरि- अणाहारिति । .८८ $ १३६. मणुस अपज्ज० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० ज० एगस ०, उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । एवं वेडव्वियमिस्स ० - सासण० 1 दिहि क्षपकश्रेणि कमसे कम एक समय के अन्तरसे और अधिक से अधिक वर्षपृथक्त्वके अन्तर से सम्भव है, अत: इन मार्गणाओं में जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व प्रमाण कहा I $ १३५. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीय कर्म के जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है । अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार पहली पृथिवी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर अष्कायिक पर्याप्त, बादर तैजस्कायिक पर्याप्त, बाद वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त और त्रस अपर्याप्तकों जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त जघन्य और अजघ य अनुभागका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त, सब एकेद्रिय, सब पाँचों स्थावर काय, वैक्रियिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मरणकाययोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिध्यादृष्टि, संज्ञी और अनाहारकोंमें जानना चाहिए । I विशेषार्थ - य - यह सम्भव है कि नरकमे' जघन्य अनुभागवाले असंज्ञी एक समय के अतरसे उत्पन्न हों और असंख्यात लोकके अ तरसे उत्पन्न हों, अतः इनमें जघ य अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। इनमें अजघ य अनुभागवालोंका अस्तर काल नहीं है यह स्पष्ट ही है । यहाँ प्रथम पृथिवीके नारकी आदि अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह अन्तर बन जाता है, अत: उनकी प्ररूपणा सामान्य नारकियों के समान जानने की सूचना की है । द्वितीयादि नरकोंम' जघन्य और अजघन्य अनुभागवाले सर्वदा उपलब्ध होते हैं, अतः वहाँ जघन्य और अजघन्य अनुभागवालों के अन्तरकालका निषेध किया है । 1 $ १३६. मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है । अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और सासादन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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