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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए वड्डीए अंतरं १२३ भागो। पंचहाणि० ज० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया। अणंतगुणवडि०--अवहि. सव्वद्धा । अणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० अतोमुहुत्तं । मणुसअपज्ज० णारयभंगो । णवरि अणंतगुणवडि०-अवहि० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। आणदादि जाव अवराइदो ति अणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक० आवलि० असंखे०भागो। अवहि० सव्वद्धा। सव्व अर्णतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया । अवहि० सव्वद्धा । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति । एवं कालाणुगमो समत्तो । १८३. अंतराणु० दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य। ओघे० मोह० तेरसपदाणं णत्थि अंतरं । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण गेरइएमु पंचवड्डि-पंचहाणी० ज० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणंतगुणवडि--अवहि० णत्थि अंतरं । अणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक० अंतोमु० । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्खमणुस्सतिय--देव-भवणादि जाव सहस्सारो ति । मणुसअपज्ज. मणुस्सोघं । णवरि अणंतगुणवडि-अवहि० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। आणदादि [जाव] काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पांच हानिविभक्तिवालो का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनन्तगुणवद्धि और अवस्थितविभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। अनन्तगुणहानिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें नारकियों के समान भंग जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थितविभक्तिवालो का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। आनत स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें अनन्तगुणहानिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। सर्वार्थसिद्धिमें अनन्तगुणहानिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अवस्थितविभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। इस प्रकार नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम समाप्त हुआ। ( १८३. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयके तेरह पदोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें पाँच वृद्धि और पाँच हानियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थितविभक्ति का अन्तर काल नहीं है । अनन्तगुणहानिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च,सामान्य मनुष्य,मनुष्यपर्याप्त,मनुष्यिनी, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवो में जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सामान्य मनुष्यों के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अनन्तगुणवृद्धिविभक्ति और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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