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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ वज्जाणं इदि ण परूवेदव्वं, उवरिमसुत्तादो चेव तव्वजणावगमादो ? ण, उत्तावलसिस्समइवाउलविणासण तप्परूवणादो । ... ® सम्मत्त---सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मिया केवचिरं कालादोहोति ? ३७३. सुगमं० । - सव्वद्धा। ६ ३७४. कुदो ? एगजीवम्मि उक्कस्साणुभागम्मि अवहाणकालं पेक्खिदण तं पडिवजमाणजीवाणमंतरकालस्स असंखे०गुणहीणत्तदंसणादो। संपहि चुण्णिमुत्तमस्सिदृण उक्कस्साणुभागकालपरूवणं करिय उच्चारणमस्सिदृण कस्सामो। ६ ३७५. कालो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि। उक्कस्से पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसंपयडीणं उक्कस्साणुभागस्स कालो केवचिरं? जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अणुक्क० सम्वद्धा। सम्मत्तसम्मामि० उक्क० सव्वद्धा । अणुक्क० ज० उक्क० अंतोमु०। .. शंका-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योकि आगेके सूत्र में जो उन दोनोंके कालका अलगसे प्ररूपण किया है उससे ही ज्ञात हो जाता है कि यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व को छोड़ दिया है। समाधान-नहीं, क्यो कि उतावले शिष्यों की बुद्धिकी व्याकुलताको नष्ट करनेके लिये यह कथन किया है। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवोंका कितना काल है ? ६ ३७३. यह मूत्र सुगम है। * सर्वदा है। ___.३७४. क्योंकि एक जीवमें उत्कृष्ट अनुभागके अग्रस्थान कालको अपेक्षा उसको प्राप्त करनेवाले जीवों का अन्तरकाल असंख्यातगुणा हीन देखा जाता है। अर्थात् एक जीवके उत्कृष्ट अनुभागमें रहनेका जितना काल है उसकी अपेक्षा उसके उत्कृष्ट अनुभागमें न रहनेका काल असंख्यातगुणा हीन है, अत: जब अवस्थान कालसे अन्तर काल बहुत कम है तो नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभाग सर्वदा बना रह सकता है। अब चूणिसूत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभाग कालका कथन करके उच्चारणाकी अपेक्षा उसका कथन करते हैं। ....९३७५ काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टके कथनका अवसर है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनभागका काल सर्बदा है । अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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