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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ भागविहत्ती ४ १ ४६०. भागाभागाणु ० दुविहो णिद्द सो— घेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त--बारसक०--णवणोक० भुज० सव्वजीवाणं केव० ९ संखे० भागो । अप्प० असंखे० भागो । अवद्वि० संखेज्जा भागा । एवमणंताणु० चरक्क । णवरि अवत्तव्व ० अनंतिमभागो सम्मत्त० - सम्मामि० अप्पद ० - अवत्तव्व० असंखे ० भागो । अवद्वि० संखेज्जा भागा । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अप्पद ० णत्थि । $ ४६१. आदेसेण णेरइएस तिरिक्खभंगो । गवरि अणंताणु ० चउक्क० अवतव्व० असंखे ० भागो । एवं पढमपुढवि०--पंचिदियतिरिक्ख-पंचिं० तिरि०पज्ज०- -देवोघं सोहम्मद जाव सहस्सार ति विदियादि जाव सत्तमपुढवि० - पंचिं० तिरिक्खजोणिणी०. ०--भवण० वाण ०. - जोइसि० एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अप्पद० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्ख अपज्ज० -- मणुस अपज्ज० णेरइयभंगो | णवरि अणंताणु ० चउक्क० अवत्तव्व० णत्थि | सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं णत्थि भागाभागो । 1 २८८ लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त सभी प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिवाले नियमसे होते हैं शेष पद विकल्पसे होते हैं, अत: आनतसे नव ग्रैवेयक पर्यन्त तेईस प्रकृतियों के तीन तीन भङ्ग होते हैं; क्योंकि बाईसकी अल्पतर विभक्ति विकल्पसे होती है और सम्यग्मिध्यात्वकी अवक्तव्य विभक्ति विकल्पसे होती है । अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्य, भुजगार और अल्पतर ये तीन विभक्ति विकल्प से होती हैं इसलिये सत्ताईस भङ्ग होते हैं सम्यक्त्व प्रकृतिकी दो विभक्ति विकल्पसे होती हैं इसलिये नौ भङ्ग होते हैं । अनुदिशादिक में सत्ताईस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्ति विकल्पसे होती है इसलिये प्रत्येकमें तीन तीन भङ्ग होते हैं । सम्यग्मध्यात्वकी केवल अवस्थित विभक्ति वाले ही नियमसे होते हैं, अतः भङ्ग नहीं है । ४९. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी भुजगार विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अल्पतर विभक्तिवाले असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थित विभक्तिवाले संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए | इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यावभक्तिवाले जीव सब जीवों के अनन्तवें भागप्रमारण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं है । $ ४९१. आदेशसे नारकियों में तिर्यच्चों के समान भङ्ग है । इतना विशेष है कि अनन्ताबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तक के देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए ।. इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतर विभक्ति नहीं होती । पचेन्द्रिय तिर्यव पर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में नारकियोंके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि उनमें अन न्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्ति नहीं होती । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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