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________________ --- - - - --- - - गा०२२] अणुभागविहत्तीए अंतरं मुहुमवणप्फदिकाइयपज्ज०-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्त-बादरणिगोदपज्जत्तापज्ज०-सुहुमणिगोदपज्जत्तएमु मोह० जहण्णाजहण्ण. पत्थि अंतरं । वणप्फदिकाइय-मुहुमवणप्फदिकाइय०-मुहमणिगोदेसु मोह० ज० अज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवमेदेसिमपज्जत्तएम वि । णवरि जहण्णुक्क० अंतोमु०। तस-तसपज्जतापज्जत्तएसु'० मोह० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं। $ ७६. जोगाणु० पंचमण०--पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०--वेउव्विय०वेउव्वियमिस्स-कम्मइय०-आहा-आहारमिस्स० मोह० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं । ओरालियमिस्स० सुहुमेइंदियअपज्जत्तभंगो। ८०. वेदाणुवादेण इत्थि०-पुरिस०-णqसय० मोह० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं । एवमवगद०-चत्तारिकसाय-अकसाय-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणसूक्ष्म, पर्याप्तक, और अपर्याप्तक, सूक्ष्म वनस्पतिकाय पर्याप्तक, बादर वनस्पतिकाय प्रत्येकशरीर तथा इनके पर्याप्तक, और अपर्याप्तक, बादर निगोद तथा इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक और सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंमें मोहनीयकमके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है । वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्मनिगोदया जीवों में मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार इनके अपर्याप्तकोंमें भी जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें दोनों प्रकारका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । त्रस, त्रसपर्याप्तक और त्रस अपर्याप्तकोंमें मोहनीय. कर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिका अन्तर नहीं है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में और सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चों के समान स्पष्टीकरण है। किन्तु सूक्ष्म अपर्याप्तकोंमें जघन्य अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर भी अन्तर्मुहूर्त ही है, क्योंकि बार बार जन्म लेने पर भी कोई जीव अपर्याप्तकोंमें अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक लगातार जन्म नहीं ले सकता । शेष सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक आदिमे अन्तर नहीं है, क्योंकि हतसमुत्पत्तिककर्म द्वारा जघन्य अनुभाग करनेवाला जीव उनमें जन्म तो ले सकता है किन्तु उन मार्गणाओंमे जघन्य अनुभाग करना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार पृथिवीकायादिकमे भी अन्तरका अभाव जानना चाहिए। केवल वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोदिया जीवोंमे अन्तर होता है जो सूक्ष्म एकोन्द्रियकी तरह समझ लेना चाहिए। ६७९. योगकी अपेक्षा पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीयकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके समान भंग है। ८०. वेदकी अपेक्षा स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदियोंमे मोहनीय कर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार अपगतवेदी चारों कषायवाले, कषायरहित जीव, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक १. ता. प्रतौ तस तसपजसएसु इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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