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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ ० $ ५११. आदेसेण णेरइएसु तेवीसंपयडीणमोघं । सम्मामि० सव्वत्थोवा अवत्त० । raft • असंखे० गुणा । अणंताणु० चउक्क० ओघं । णवरि अप्पद० असंखे० गुणा | एवं पढमढवि-पंचिदियतिरिक्ख पंचिं० तिरि०पज्ज० देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सार ति । विदियादि जाव सत्तमित्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अप्प० णत्थि । एवं जोणिणी भवण० वाण० - ज ० - जोइसिए ति । २९८ $ ५१२. तिरिक्खा० ओघं । णवरि सम्मामि० णेरइयभंगो | पंचिदियतिरिक्खअपज्ज० छब्बीसंपयडीणं सव्वत्थोवा अप्पद० | भुज० असंखे० गुणा । अवहि० संखे०गुणा ! सम्म० - सम्मामि० णत्थि अप्पाबहुयं । एवं मणुस अपज्ज० । मणुसाणं णेरइयभंगो | णवरि सम्म० - सम्मामि० सव्वत्थोवा अप्प० । अवत्त० संखे० गुणा | अवडि० असंखे० गुणा । एवं [ मणुस - ] पज्जत्त - मणुसिणीणं । णवरि सव्वत्थ संखेज्जगुणं कायव्वं ६५१३. आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति वावीसंपयडीणं सव्वत्थोवा अप्पद० । अवट्ठि० असंखे॰गुणा। सम्म०-सम्मामि० देवोघं । अनंताणु० चटक्क० सव्वत्थोवा अवत्त० । अप्पदर० संखे० गुणा । भुज० असंखे० गुणा । अवहि० असंखे० गुणा । अणुद्दिसादि ५११. आदेश से नारकियोंमें तेईस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व प्रोघके समान है । सम्यग्मिध्यात्वकी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अल्पबहुत्व घके समान है । इतना विशेष है कि अल्पतर विभक्तिवाले असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव तथा सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवों में जानना चाहिए। दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वक अल्पतर विभक्ति वहाँ नहीं होती । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में जानना चाहिए । $ ५१२. सामान्य तिर्थवों में ओघ के समान भङ्ग है । इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग नारकियों के समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे भुजगार विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वा अल्पबहुत्व वहाँ नहीं है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । मनुष्यों में नारकियोंके समान भङ्ग है । इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे वक्तव्यविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सर्वत्र असंख्यातगुणे के स्थान में संख्यातगुणा कर लेना चाहिये । ५१३. आनत से लेकर नवमैत्रेयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अल्पतरविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व सामान्य देवोंके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अल्पत रविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगार विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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