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________________ २४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ असंखे०लोगा । अज० पत्थि अंतरं । सम्मत्त० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं । अज० णत्थि अंतरं । सम्मामि० अज० णत्थि अंतरं । एवं पढमपुढवि०-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं०तिरि०पज्ज०-देवोघं ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति मिच्छत्तबारसक०-णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं । अणंताणु० चउक्क० जहण्णाणु. ज० एगस०, उक्क. असंखे० लोगा । अज० णत्थि अंतरं । एवं जोदिसि० । ___- ४१७. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु वावीसंपयडीणं जहण्णाजहणणाणु० णत्थि अंतरं । सम्मत्त० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं । अज० णत्थि अंतरं । एवं सम्मामि । णवरि जहण्णं णत्थि । अणंताणु० चउक्क० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज पत्थि अंतरं । एवं सोहम्मादि जाव णवगेवज्जा त्ति । जोणिणी० छब्बीसंपयडीणं जहण्णाणु० जह० एगस०, उक्क० असंखे० लोगा । अज० पत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० अज० णत्थि अंतरं। एवं पंचिंदियतिरिक्खअपज०भवण-वाण-तराणं । मणुसपज्ज. मणुस्सोघं । णवरि इत्थि० हस्सभंगो । मणुसिणी० एवं चेव । णवरि खवगपयडीणमंतरं वासपुधत्तं । मणुसअपज्ज० छब्बीसंपयडीणं ज० जह० एगस०, उक्क. असंखेज्जा लोगा। अज० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रम ण है। अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्वके जघन्य अनभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है। अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है। सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त और सामान्य देवो में जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियो में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायो के जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। अनन्ता. नुबन्धीचतुल्क के जघन्य अनभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार ज्योतिषीदेवों में जानना चाहिए। ४१७. तिर्यञ्चगतिम तिर्यञ्चों में बाईस प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथस्वप्रमाण है। अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तर जानना चाहिए । इतना विशेष है कि तिर्यञ्चो में उसका जघन्य अनुभाग नहीं होता। अनन्तानबन्धीचतुष्कके जघन्य अनभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार सौधर्म स्वर्गसे लेकर नवग्रैवेयक तक के देवों में जानना चाहिए। यानिनियों में छब्बीस प्रकृतियो के जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, भवनवासी और व्यन्तरोंमें जानना चाहिए । मनष्यपर्याप्तकों में सामान्य मनुष्यों के समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका अन्तर हास्यके समान है। मनुष्यिनियों में भी इसी प्रकार है । इतना विशेष है कि इनमें क्षपकश्रेणिमें जिन प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग होता है उनका अन्तर वर्षपृथक्त्व है। मनष्य अपयाप्तको में छब्बीस प्रकृतियों के जघन्य अनुभागस कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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