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________________ ११० - जयधवलासहिदे कसायपाहुरे [अणुभागविहत्ती ४ णेदव्वं जाव अणाहारि ति । एवमुक्कस्सवड्डिसामित्ताणुगमो समत्तो । ६ १६६. जहएणए पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसैण। ओघेण मोह० जहरिणया वड्डी हाणी अवहाणं च कस्स ? अण्णदरस्स अणंतभागेण वडिदूण बंधे जहरिणया वड्डी । तम्मि चेव कंडयघादेण हदे जहएिणया हाणी। एगदरत्थ अवहाणं । एवं चदुसु गदीसु । वरि आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति जहरिणया हाणी कस्स । अएणदरस्स अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोएमाणवेदगसम्मादिहिस्स चरिमअणुभागकंडए हदे तस्स जहरिणया हाणी । तस्सेव से काले जहएणमवहाणं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणहारित्ति। एवं सामित्ताणुगमो समतो। समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इस प्रकार जानकर उत्कृष्ट वृद्धि आदिको अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ ओघसे अपने योग्य जघन्य अनुभाग सत्कर्मवाला जो जीव उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है और उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। तथा उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवके द्वारा उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकका घात किये जाने पर उत्कृष्ट हानि होती है। नारकियों, चार प्रकारके तिर्यञ्चों, तीन प्रकारके मनुष्यों, सामान्य देवों और भवनवासीसे लेकर सहस्रार तकके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें कुछ अन्तर है जो मूलमें बतलाया ही है। विशेष बात यह है कि उनमें उत्कृष्ट हानिवालेके उत्कृष्ट अवस्थान बतलाया है। इसका कारण यह है कि उनके उत्कृष्ट वृद्धिसे उत्कृष्ट हानिका प्रमाण अधिक है और वृद्धि तथा हानिमेंसे जिसका प्रमाण अधिक होता है उसीको लेकर उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसी प्रकार आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। उनमें वृद्धि तो होती ही नहीं, हानि ही होती है और उत्कृष्ट हानिवालेके ही उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। ६१६६. जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान किसके होता है ? जो अन्यतर जीव अनन्तवें भाग अधिक अनुभागका बन्ध करता है उसके जघन्य वृद्धि होती है और क.ण्डकघात के द्वारा उसी अनन्तवें भाग अनुभागका घात कर दिये जाने पर जघन्य हानि होती है । तथा इन दोनों वृद्धि-हानियों में से किसी एक स्थानमें जघन्य अवस्थान होता है। इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । कुछ विशेषता इस प्रकार है-आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जघन्य हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन करनेवाला अन्यतर वेदकसम्यग्दृष्टि देव जब अन्तिम अनुभागकाण्डकका घात कर देता है तब उसके जघन्य हानि होती है। उसीके अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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