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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए अंतरं ___ १३१. अंतराणुगमो दुविहो-जहएणो उक्कस्सओ चेदि। उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-अोघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अणुक० णत्थि अंतरं । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय--सव्वपंचिंदिय-सव्वछक्काय--पंचमण०--पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय० ओरालियमिस्स०-वेउव्विय०-वेउव्विय मिस्स-कम्मइय-तिएिणवेद-चत्तारिकसाय-तिरिणअण्णाण--असंजद०--चक्खु०--अचक्खु०--पंचले०--भवसि०--अभवसि०-मिच्छादिहि-- सरिण-असएिण-आहारि-अणाहारि त्ति । णवरि मणुसअपज्ज०-वेउव्वियमिस्स० अणुक० जह० एगस, उक० पलिदो० असंखे०भागो बारस मुहुत्ता। १३२. आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि ति उक्कस्साणुकस्स० णत्थि अंतरं । उपशमसम्यग्दृष्टियोंके समान घटित कर लेना चाहिए । इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। $ १३१. अन्तरानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर काल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य, देव, भवनवासीसे लेकर सहस्रारस्वर्ग तकके देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चेन्द्रिय, सब छहों काय, पाँचों मनोयागी, पाँचों वचनयोगी, सामान्य काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, तीनों अज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्लके सिवा शेष पाँचों लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकों और वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है तथा उत्कृष्ट अन्तर मनुष्य अपर्याप्तकोंमे पल्यके असंख्यातवें भाग और वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमे बारह विशेषार्थ-आंघसे एक समयके अन्तरसे और परिणामोंके अनुसार असंख्यात लोकप्रमाण काल के अन्तरसे उत्कृष्ट अनुभागकी सत्ता सम्भव है, अत: यहाँ उत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं, अतः उनके अन्तर कालका निषेध किया है। यहाँ मलमें अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है। मात्र मनुष्यअपर्याप्त और वैक्रियिकमिश्रकाययोगका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर क्रमश: पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और बारह मुहूर्त है, अतः इनमें अनु कृष्ट अनुभागवालोंका जघग्य और उत्कृष्ट अन्तर अपने अपने जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कालके समान कहा है। ............. ६ १३२. आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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