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________________ गा०-२२] . अणुभागविहत्तीए कालो जहएणाणु० जह० एगस०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अज० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि। आभिणि०--सुद--ओहि. मोह० जहएणाणु० जहएणुक्क० एगस० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० छासहिसागरो. सादिरेयाणि । मणपज्जव० मोह० जहएणाणु० जहएणक्क० एगस० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । ५३. संजमाणु० संजदेसु मोह० ज० जहएणुक्क० एगस० । अज० ज. अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा। एवं सामाइय-छेदो०संजदाणं । णवरि अज० जह० एगस०। परिहार० मोह. जहएणाणु० ज० अंतोमु०, उक्क. पुवकोडी और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है। विभंगज्ञानियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्ति का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम इकतीस सागर है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक छियासठ सागर है। मनःपर्ययज्ञानियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तम हूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है। विशेषार्थ-दोनों अज्ञानोंमें एक बार जघन्य या अजघन्य अनुभाग होने पर वह कमसे कम अन्तमुहूर्त अवश्य रहता है। इसीसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है। इनमें अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण जिस प्रकार एकेन्द्रियोंमें घटित करके बतला आये हैं वैसे ही यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। जो मनुष्य जघन्य अनुभागको करके अनन्तर नीचे उतर कर यथाविधि एक समय तक विभङ्गज्ञानमें जघन्य अनुभागके साथ रह कर अजघन्य अनुभाग कर लेता है उसके विभङ्गज्ञानमें जघन्य अनुभाग एक समय तक उपलब्ध होता है, इसलिए विभङ्गज्ञानमें जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा जो जघन्य अनुभागके साथ उपरिम-उपरिम नवग्रेवयकमें उत्पन्न होता है उसके विभङ्गज्ञानमें कुछ कम इकतीस सागर काल तक जघन्य अनुभाग देखा जाता है, इसलिए इसका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। इसमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है यह स्पष्ट ही है । मात्र अजघन्य अनुभागका यह एक समय काल यथाशास्त्र घटित करना भिनिबोधिक आदि चारों ज्ञानोंमें क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान सम्भव होनेसे इनमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । तथा इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। ५३. संयमकी अपेक्षा संयतोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि है। इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापना संयतोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है। परिहारविशुद्धिसंयतोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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