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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुअं २६९ दव्वपज्जयविसयसम्मत्त-संजमघादित्तणेण दोण्हं समाणत्तुवलंभादो त्ति ? ण एस दोसो, सत्तिं पडुच्च अणंतगुणत्तं पडि विरोहाभावादो। कज्जव्वारेण दोण्हमणुभागाणं समाणत्ते संते सत्तीए सगकजमकुणंतीए अत्थित्तं कुदो णव्वदे ? पमेयादो सव्वपज्जयस्स अणंतगुणत्तं व जिणवयणादो णव्वदे। 8 णिरयगईए जहण्णयमणुभागसंतकम्मं । ६ ४६१. सुगममेदं, अहियारसंभालणहत्तादो । ® सव्वमंदाणुभागं सम्मत्त । ४६२. कुदो ? अणुसमयमोवट्टणकुणंतुप्पण्णकदकरणिजचरिमसमयसम्मताणुभागस्त गुणसेढिचरिमणिसेगावहिदस्स गहणादो । * सम्मामिच्छत्तस्स जहएणाणुभागो अणंतगुणो। ४६३. कदो ? सव्वघादिविहाणियत्तादो। सम्मत्तजहण्णाणुभागो वि सव्वघादी विद्याणियो ति णासंकणिज्जं, तस्स देसघादिएगहाणियत्तादो। कथमेत्थ सम्मामिच्छत्तकस्साणुभागस्स जहण्णववएसो त्ति णासंकणिज्जं, ववएसिवब्भावमस्सिऊण तस्स तव्ववएसोववत्तीदो। क्योंकि मिथ्यात्व सबद्रव्य और पर्यायोंको विषय करनेवाले सम्यक्त्वका घातक है और प्रत्याख्यानावरण कषाय सब द्रव्य-पर्यायविषयक संयमका घातक है, अत: दोनोंमें समानता पाई जाती है। समाधान-यह दोष ठीक नहीं है क्योंकि शक्तिकी अपेक्षा प्रत्याख्यानावरणके अनुभागसे मिथ्यात्वके अनुभागके अनन्तगुणे होने में कोई विरोध नहीं है। शंका-कार्यकी अपेक्षा जब दोनों कर्मोंका अनुभाग समान है तो मिथ्यात्वमें उस शक्तिका अस्तित्व कैसे जाना जा सकता है जो कि अपना कार्य ही नहीं करती है। समाधान-जैसे जिनवचनसे पदार्थो से उनकी सब पर्यो का अनन्तगुणत्व जाना जाता है उसी प्रकार उसी जिनवचनसे यह भी जाना जाता है। * अब नरकगतिमें जघन्य अनभागसत्कर्मको कहते हैं। ४६१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि अधिकार की सम्हाल करना इसका कार्य है। सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य अनुभाग सबसे मन्द है। ४६२. क्योंकि यहाँ पर प्रति समय अपवर्तन घातके करनेसे कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वका जो अनुभाग उत्पन्न होता है अर्थात् शेष बचता है जो कि गुण श्रेणिके अन्तिम निषेकमें अवस्थित है, उसका ग्रहण किया है। * उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है ६४६३. क्योंकि वह सर्वघाती और विस्थानिक है। सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग भी सर्वघाती और द्विस्थानिक है ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि वह देशघाती और एकस्थानिक है। चूर्णिसूत्र में सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य शब्दसे व्यपदेश क्यों किया ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि व्यपदेशिवद्भाव की अपेक्षा उत्कृष्टका जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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