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________________ २७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ * अणंताणुबंधिमाणस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो । ४६४. सम्मामिच्छत्तुक्कस्सफद्दयाणुभागादो अणंतगुणो होदूणावहिदमिच्छत्तजहण्णफद्दएण समाणं होदूण पुणो उवरि वि अणंतेसु फद्दएमु अणंताणुबंधिमाणाणुभागस्स फद्दयरयणाए उवलंभादो। ण च संजुत्तपढमसमए बज्झमाणजहण्णाणुभागो' जहण्णेगफद्दयमेतो, असंखेजलोगमेत्तछटाणसहियस्स एगफद्दयत्तविरोहादो। * कोधस्स जहएणाणुभागो विसेसाहिंयो। ४६५. सुगमं । * मायाए जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ। ४६६. सुगमं । लोभस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहियो । ४६७. सुगम। * सेसाणि जधा सम्मादिट्टीए बंधे तधा णेदव्वाणि । ४६८. एदस्स अत्थो वुच्चदे, तं जहा–सम्मादिहिअणुभागबंधस्स जहा शब्दसे व्यपदेश हो सकता है अर्थात् उत्कृष्ट में जघन्यपनेका आरोप करके उत्कृष्ट को जघन्य कह दिया है। * उससे अनन्तानबन्धी मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। ६४६४. क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागस्पर्धकोंके अनुभागसे अनन्तगुणा होकर अवस्थित हुए मिथ्यात्वके जघन्य स्पर्धकसे समान होकर पुनः आगे भी अनन्त स्पर्धकोंमें अनन्तानुबन्धी मानके अनुभागकी स्पर्धक रचना पाई जाती है, अत: सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसे अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। शायद कहा जाय कि अनन्तानुबन्धीका पुनः संयोजन होनेके प्रथम समयमें बँधनेवाला जघन्य अनुभाग जघन्य एक स्पर्धकमात्र है, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो अनुभाग असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान सहित है उसके एक स्पर्धक मात्र होनेमें विरोध है। * उससे अनन्तानुबन्धी क्रोधका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है । $ ४६५ यह सूत्र सुगम है। * उससे अनन्तानुबन्धी मायाका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है । ४६६. यह सूत्र सुगम है। * उससे अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है । $ ४६७. यह सूत्र सुगम है। * शेष कर्मोंका जैसे सम्यग्दृष्टिके बन्धमें अल्पबहुत्व है वैसे ही यहाँ भी जानना चाहिये। ६ ४६८. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- सम्यग्दृष्टि के अनुभागबन्धका १. ता. प्रतौ जहण्णाणुभागे ( गो ), श्रा० प्रतौ जहएणाणुभागेण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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